________________
४५४
धरणानुयोग
पालं ते तव साणाए वा सरणाए था, तुमं पितेसि णासं सागर वा सरणाए वा
से हसाए किड्डाए मरीए पि
आ. सु. १, अ. २. उ. १, सु. ६३-६४ तेपुवि पोलि सोवा ते जिमच्छा पोसेज्जा । पालं ते तव तागाए था सरणाएं बा, तुमं पिसेसि पालं वाणश्ए वा सरणाए वा ।
उवादीत सेसेण वा संणिहिसंणिचयो कज्जति ब्रहमेस भागया नोयणाए ।
स्वजन शरणदाता नहीं होते
सोया पायासमुति
जेहि वा सद्धि संवसति ते व षं एगया गियगा पुब्वि परिहरति सोवा ते जियए पच्छा परिहरंज्जा ।
णालं ते तब ताए या सरणाए वा सुमपि तेसि जालं तागाए वा सरणाए वा ।
एते जिला भो ! म सरणं
हे पुण्यसंयोग
परियाय
agree अपलो
• वाला पंडितमानियो । सिया
feeatवदेसगा ॥
विकलं तेसु ण मुन्छ ।
मग मु िजाए
हे पुरुष ! न तो वे तेरी रक्षा करने मोर तुझे शरण देने में समर्थ हैं और न ही उनकी रक्षा करने व शरण देने के लिए - आ. सु. १, अ. २. उ. १. सु. ६५ (ख) ५७ समर्थ है।
सराव सामा दहमेवेति महियें। अगर अभारमे चिना पर ॥
सूत्र ६६६
हे पुरुष । वे स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं है। तू भी उन्हें याण या शरण देने में समर्थ
नहीं है।
वह बुरा पुरुष, न हंसी-विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति सेवन के और न शृंगार के योग्य रहता है । जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी (शैशव एवं रुग्ण अवस्था में उनका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह सम्बन्ध होने पर भी वे (स्वजन ) तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं है। तुम भी उनको प्राण व शरण देने में समर्थ नहीं हो ।
(मनुष्य) सम्भोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है। उसे वह कुछ गृहस्थों के भोगभोजन के लिए उपयोग में लेता है।
( अनेक भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है।
जिन स्वजन स्नेहियों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (कुष्ठ रोग आदि के कारण पूना करके पहले छोड़ देते हैं। बाद में वह भी अपने स्वजन स्नेहियों को छोड़ देता है ।
हे शिष्यो ! ये (असंवृत्त साधु साधु (काम, क्रोध आदि से अथवा परीषह उपसर्ग रूप शत्रुओं से) पराजित हैं, (इसलिए ) ये धरण लेने योग्य नहीं है (अथवा स्वशिष्यों की शरण देने में समर्थ नहीं है। दे अज्ञानी अपने आपको पण्डित मसम्पत्ति आदि) को तथा स्
मानते है योग बन्धुबान्दर, छोड़नार भी (दुसरे वारम्परिक को सावच कृत्यों का उपदेश देते हैं।
विद्वान भिक्षु उन (आरम्भ-परिग्रह में आसक्त साधुओं) को भलीभांति जानकर उसमें मुच्छ ( आसक्ति ) न करे, अपितु ( वस्तु स्वभाव का मनन करने वाला) मुनि किसी प्रकार का मद न करता डुवाउन अन्तर्षिको ग्रहस्थों एवं मिथिलानारियों के साथ संसर्ग रहित होकर मध्यस्थ भाव से संयमी जीवन-यापन करें; या मध्यस्थवृत्ति से निर्वाह करे ।
मोक्ष के सम्बन्ध में कई (अन्यतीर्थी) मतवादियों का कथन है कि परिग्रहधारी और बारम्भ ( हिसाजनक प्रवृत्ति) से जीने
- सूप. सु. १, भ. १, उ. ४, मा. १-३ वाले जीव भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु निन्य भाव भिक्षु अपरिग्रही और अनारम्भी को शरण में जाए।