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________________ सूच ७००-१०२ कर्मवेदन-काल में कोई शरण नहीं होता चारित्राचार [४५५ कम्मवेयणकाले नको विसरणं कर्मवेदन-काल में कोई शरण नहीं होता७.०. जे पावकम्मेहि घणं मणुसा ७००. जो मनुष्य कुमति को स्वीकार कर पापकारी प्रवृत्तियों से समायषन्ती अपई महाप । धन का उपार्जन करते हैं, उन्हें देख ! वे धन को छोड़कर मौत पहाय ते "पास पट्टिए" नरे के मुंह में जाने को तैयार हैं। वे वैर (कम) से बन्धे हुए मरकर वेराणुबखर नरयं उदेति से नरक में जाते हैं। सेणे जहा सन्धि-मुहे गहीए जैसे सेंध लगाते हुए पकड़ा गया पापी घोर अपने कर्म से सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। ही छेदा जाता है, उसी प्रकार इस लोक और परलोक में प्राणी एवं पया पंडन इहं च लोए अपने कुतकर्मो से ही छेदा जाता है। किये हुए कर्मों का फल "आण कम्माण न मोक्खु अस्थि" ॥ भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। संसारमावन्न परस्स अट्टा संसारी प्राणी अपने बन्धु-जनों के लिए जो साधारण कर्म साहारण जंच करे कम्म। (इसका फन मुझे भी मिले और उनको भी -ऐसा कर्म) करता कम्मरस ते तस्स उ वेय-काले है, उस कर्ग के फल-भोग के समय वे बन्धु-जन बन्धुता नहीं बन्ध, धुक्यं वन्ति ॥ दिखाते-उसका भाग नहीं बंटाते । वितण ताणं न लभे पमस्ते प्रमत्त मनुष्य इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण इमंमि लोए अदुवा परत्था । नहीं पाता । अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो उसकी वीव पण8 व अणस्त-मोई भौति, अनन्त' मोह बाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को नेया उयं बढ़मदटमेव ॥ देखकर भी नहीं देखता है। -उत्त. अ. ४, गा. २-५ PETA अपरिग्रह महावत आराधना का फल-५ अपरिमाह ाराहणफलं .. अपरिग्रह आराधन का फल७०१. इमं च परिगाह-वेरमण-परिरक्षणटुयाए पावयण भगवया ७०१. परिग्रहविरमण प्रत के परिरक्षण हेतु भगवान् ने यह सुकहिय, अत्तहिय, पेन्धाभाविय, आगमेसिमद, सह, नेया- प्रवचन (उपदेश) कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी उयं, अकुटिलं, अणुत्तरं, राज्य पक्ष-पावाण-विमोसमणं। है, आगामी भवों में उत्तम पल देने वाला है और भविष्य में -पहल सु. २, अ० ५, सु० १२ कल्याण करने वाला है यह शुद्ध, न्याययुक्त, अकुटिल, सर्वो स्कृष्ट और समस्त दुःखों तथा पापों को सर्वया शान्त करने वाला है। सुहसायाफलं-- सुख-स्पृहा-निवारण का फल - ७.२.५०--सुहसाए मंते ! जीवे कि जणय ? ७०२. प्रा--भन्ते ! मुख की स्पृहा का निवारण करने से जीव क्या प्राप्त करता है? ३०-सुहसाएर्ण अणुस्सुयतं जगया। अणुस्सुपत्ताए णं जीवे 30-सुख की स्पृहा का निवारण करने से बह विषयों के अणुकम्पए अणुग्म विगयसोगे बरित्तमोहणिज्ज कम्म प्रति अनुत्सुक-भाव को प्राप्त करता है। विषयों के प्रति अनुखवेद । त्सुक जीव अनुकम्पा करने वाला, प्रशान्त और शोकमुक्त होकर -उत्त. ब. २१, सु. ३१ चारित्र को विकृत करने वाले मोह-कर्म का क्षय करता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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