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चरणानुयोग
कल्पस्थिति (आचार-मर्यादा)
सूत्र ७६.८०
४. नन्नत्य मारहतेहि हेऊहिं आयारमहिज्जा ,
(४) आहत-हेतु के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से घउत्थं पयं मसह।
आचार का पालन नहीं करना—यह चतुर्थ पद है। भवद य इत्य सिलोगो
यहाँ (आचार-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक हैजिणवयणरए अतितिणे परिपुरणाययमाययदिए ।
जो जिनवचन में रत होता है, जो प्रलाप नहीं करता, जो आयारसमाहिसंवुडे भवह य दंते भावसंधए ॥ सूचार्य से प्रतिपूर्ण होता है, जो अत्यन्त मोक्षार्थी होता है, वह ---दस. अ.६, उ. ४, मु. ४, गा.५ आचार-समाधि के द्वारा मवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन
करने वाला तथा मोक्ष को निकट करने वाला होता है। कप्पट्टिई
कल्पस्थिति (आचार-मर्यादा)-- ५०. छभिवहा कप्पट्टिई पणत्ता, तं जहा
८०. कल्पस्थिनि (निर्ग्रन्थों और निधियों की आचार मर्यादा)
छह प्रकार की होती है । यथा१. सामाइय-संजय-कम्पट्ठिई,
(१) सामायिकसंधतकल्पस्थिति-सामायिक चारित्र सम्बन्धी
मर्यादा । २. छेओवट्ठावणिय-संजय कप्पढिई.
(२) छदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति-यावज्जीवन की सामायिक स्वीकार करते समय अथवा व्रत भंग होने पर पुनः
पान महावतों के आशेषण रूप पारित्र की मर्यादा । मिजिकमा कहिल,
(३) निविश्यमान कल्पस्थिति---गरिहारविशुद्धि तप स्वीकार
करने वाले की आजार मर्यादा। ४. निस्विटुकाय कप्पदिई,
(४) निविष्टकायिक कल्पस्थिति–पारिहारिक तप पूरा
करने वाले की आचार मर्यादा । ५. जिणकप्पट्टिई,
(५) जिनकल्पस्थिति-गच्छ से बाहर होकर तपस्यापूर्वक
जीवन बिताने वाली आचार मर्यादा । ६. थेरकापट्टिई।
(६) स्थविरकल्पस्थिति गच्छ के आचार्य की आचार -कप्प. स. ६. सु.२० मर्यादा।
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