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धरणानुपीम
समाधि का विधान
सूत्र १५८-१५५
भासाहुगं धम्म समुट्टितेहि, |
धर्माचरण करने में समुद्यत साधुओं के साथ विचरण करता वियागरेज्जा समया सुरणे ॥ हुआ साधु दो भाषाएँ (सत्य और असल्यामृषा) बोले । सुप्रश
(स्थिरबुद्धिसम्पन्न) साधु धनिक और दरिद्र दोनों को समभाव से
धर्म कहे। अणुगच्छमाणे बितह ऽभिजाणे,
पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर शास्त्र या धर्म की तहा तहा साहु अक्षरकसेणं ।
व्याख्या करते हुए साधु के कथन को कोई व्यक्ति यथार्थ समश मकस्थती मास विहिसएजा,
लेता है, और कोई मन्दमति व्यक्ति उसे अयथार्थ रूप में (विपनिगं वा वि न बोहएज्जा ॥
रीत) समक्षता है, (ऐसी स्थिति में) साधु उस विपरीत समझने वाले व्यक्ति को जैसे-जैसे समीचीन हेतु, मुक्ति, उदाहरण एवं तर्क आदि से वह समझ सके, वैसे-वैसे हेतु आदि से अकर्कश (कटुतारहित-कोमल) शब्दों में समझाने का प्रयल करे। (किन्तु जो ठीक नहीं समझता है, उसे-तू मूर्ख है, दुर्बुद्धि है, जड़मति है, इत्यादि तिरस्कारसूचक वचन कहकर उसके मन को दुःखित न करे, (तथा प्रश्नकर्ता की भाषा को असम्बद्ध बताकर उसकी विशम्बना न करे, छोटी-सी (थोड़े शब्दों में कही जा सकने वाली)
बात को व्यर्थ का शब्दाडम्बर करके विस्तृत न करे। समालवेज्जा पत्रिपुण्णमासी,
जो बात संक्षेप में न समझाई जा सके उसे साधु विस्तृत निसामिया समिया अदुवंसी।
(परिपूर्ण) शब्दों में कहकर समझाए। गुरु से सुनकर पदार्थ को आणाए सुडं वयणं भिउंजे,
भलीभांति जानने वाला (अर्थदर्थी) साधु आज्ञा से शुद्ध वचनों का ऽमिसंघए पापविवेग भिक्खू ।। प्रयोग करे । साधु पाप का विवेक रखकर निदोष वचन बोले।
___ --. सु. १, अ. १४, गा. १-२४ समाहिविहाणं--
समाधि का विधान१५६. अहाबुयाई मुसिक्खएज्जा,
१५६. तीर्थंकर और गणधर आदि ने जिस रूप में आगमों का जएज्ज या जातिसं बदेजा।
प्रतिपादन किया है, गुरु से उनकी अच्छी तरह शिक्षा ले, से विधिमं विद्धि ण लसएक्जा,
(अर्थात्-ग्रहण शिक्षा द्वारा सर्वशोक्त आगम का अच्छी तरह से जाणति भासिङ सं समाहि ॥
ग्रहण करे और आसे बना शिक्षा द्वारा उद्युक्त बिहारी होकर तदनुसार आचरण करे) (अथवा दूसरों को भी सर्वजोक्त आगम अच्छी तरह सिखाए)। वह सदैव उसी में प्रयत्न करे। मर्यादा का उल्लंघन करके अधिक न बोले। सम्यकदृष्टिसम्पत्र साधक सम्यकदृष्टि को दूषित न करे (अथवा धर्मोपदेश देता हुआ साधु किसी सम्यकदृष्टि की दृष्टि को (शंका पैदा करके) बिगाड़े नहीं । बह साधक उस (तीर्थकरोक्त सभ्यग्दर्शन-शान-चारित्र
तपश्चरणरूप) भाव समाधि को कहना जानता है। अलसए पो पन्छणमासी,
साधु आगम के अर्थ को दुषित न करे, तथा दह सिद्धान्त गो सुत्तमस्थं च करेज ताई।
को छिपा कर न बोले । स्व-पर-याता साधु सूत्र और अर्थ को सस्थारमतो अगुवीति यायं,
अन्यथा न करे । साधु शिक्षा देने वाले (प्रशास्ता-गुरु) की भक्ति सुयं च सम्म जिवातएज्जा ।।
का ध्यान रखता हुआ सोच-विचार कर कोई बात कहे, तथा साधु ने गुरु से जैसा सुना है, वैसा ही दूसरे के समक्ष सिमान्त या शास्त्र वचन का प्रतिपादन करे।
हा