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________________ सत्र १५६-१६१ भुतघर प्रकार महुमान लानाधार [५०६ से सुदसुत्ते उवहाण च, जिस साधु का सूत्रोच्चारण, सूत्रानुसार प्ररूपण एवं सूत्राधम्म च मे विदति तत्य तस्य । ध्ययन शुद्ध है, जो शास्त्रोक्त तप (उपधान तप) का अनुष्ठान आदेग्मवके कुसले वियमे, करता है, जो श्रुतचारित्ररूप धर्म को सम्यकरूप से जानता या से अरिहति भासिहं तं समाहि ॥ प्राप्त करता है अयवा जो उत्सर्ग के स्थान पर उत्मर्ग-मार्ग की ---सूय. सु. १, अ. १४, गा. २५-२७ और अपवाद-मार्ग के स्थान पर अपवाद की ग्ररूपणा करता है, या हेतुग्राहा अर्थ की हेतु से और आगम-ग्राह्य अर्थ की आगम से अथवा स्व-समय की स्व-समय रूप में एवं पर-समय की परसमय रूप में प्ररूपणा करता है, वही पुरुष ग्राह्य-वाक्य है। तथा वही शास्त्र का अर्थ और तदनुसार आचरण करने में कुशल होता है। वह अविचारपूर्वक कार्य नहीं करता। वही मन्थमुक्त साधक सर्वज्ञों की समाधि की व्याख्या कर सकता है। सुत्तधरस्स भेया श्रुतधर के प्रकार१६०. तो पुरिस जाया पण्णता, तं महा १६०. श्रुतधर पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैंपुतघरे, अत्यधरे, तबुभयधरे । सूत्रधर, अर्थधर और तदुभयधर (मूत्र और अर्थ दोनों के -स्थानांग अ.३,उ.३, सु. ३४४ धारक)। महुस्सुयसरूवं बहुश्रुत का स्वरूप १६१. जहा संखम्मि पर्य, "निहियं पुहओ वि" विराय । १६१. जिस प्रकार शंख में रखा हुआ दूध दोनों ओर (अपने एवं बहुस्सुए मिक्ख प्रमो किसी बहा ।' भीर पोसार के गुणों) से सुशोभित होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुशोभित होते हैं। जहा से कम्बोयाणं, आइपणे कथए सिया। जिस प्रकार कम्बोज देश के पोड़ों में से कन्थक घोड़ा शील असे जयेण पयरे, एवं हवा बहुस्सुए॥ आदि गुणों से आकीर्ण और वेग से श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं में बहुश्रुत श्रेष्ठ होता है। जहाइम्पसमाकले , सुरे परक्कमे । जिस प्रकार आकीर्ण (जातिमान्) अश्व पर चढ़ा हुआ दूर उमओ नन्दियोसेणं, एवं . हवद बहुस्सुए॥ पराक्रम वाला योद्धा दोनों ओर बजने वाले वाथों के घोष से अजेय होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अपने आसपास होने वाले स्वाध्याय-धोष से अजेय होता है। महर करेणपरिकिण्णे, कंजरे सद्विहग्यणे। जिस प्रकार हथिनियों से परिवत साठ वर्ष का बलवान् बलवन्ते अपरिहए, एवं हवह महस्सुए॥ हाथी किसी से पराजित नहीं होता, उसी प्रकार बहुश्रुत दूसरों से पराजित नहीं होता। जहा से तिसिंगे, जायखन्थे विरापाई। जिस प्रकार तीक्ष्ण सोंग और अत्यन्त पुष्ट स्कन्ध वाला वसहे हाहिवई, एवं हद बहुस्सुए॥ बैल यूय का अधिपति बन सुशोभित होता है, उसी प्रकार बहु श्रुत आचार्य बनकर सुशोभित होता है। महा से तिखवावे, उदग्गे दुप्पसए। जिस प्रकार तीक्ष्ण दादों वाला पूर्ण युवा और दुष्पराजेय सीहे मियाणपवरे, एवं हवा बहुए। सिंह आरण्य-पशुओं में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अन्य तीथिकों में श्रेष्ठ होता है। महा से वासुदेव, संखचक्कगदाघरे । जिस प्रकार शंख, चक्र और गदा को धारण करने वाला अपरिहयमले जोहे, एवं हवा बहुस्सुए । वासुदेव अबाधित बल वाला योद्धा होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अबाधित बल वाला होता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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