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________________ १५.] परगानुयोग प्रथम सज्जीवतत् शरीरवादी की श्रद्धा का निरसन नत्र २४६ तं जहा-उबई पारतला महे फेसग्गमत्थया तिरियं तयपरि- वह धर्म इस प्रकार है- पादतल (पैरों के तलवे) से ऊपर यंते जीबे, और मस्तक के केशों के अग्रभाग ने नीचे तक तथा तिरच्छाएस आयपजवे कसिणे, चमड़ी तक जो शरीर है, वही जीव है। यह शरीर ही जीब या एस जीवे जीवति, एस मए णो जोति, सरीरे चरमाणे समस्त पर्याय (अवग्या विशेष अथवा पर्यायवाची शब्द) है। परति, विणम्मि य गो परति, (क्योकि) इस शरीर के जीने तक ही यह जीव जीता रहता है, एतं तं जीवितं भवति, शरीर के मर जाने पर यह नहीं जीता, शरीर के स्थित (टिके) रहने तक ही यह जीव स्थित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता है। इसलिए जब तक शरीर है, तभी तक यह जीबन (जीव) है। आवरणाए परेहि गिज्जति, शरीर जब मर जाता है तब दूसरे लोग जलाने के लिए ले अगणिक्षामिते सरीरे कपोत-वष्णाणि अट्ठीणी भवंति, जाते हैं, आग से शरीर के जल जाने पर हड्डियां कपोत वर्ण आसंदीपंचमा पुरिसा गाम पवायच्छति । (कबूतरी रंग) की हो जाती है। इसके पश्चात् मृत व्यक्ति को एवं असतोअसंविजमाणे ।' श्मशान भूमि में पहुँचाने वाले जघन्य (कम से कम) चार पुरुष मृत शरीर को ढोने वाली मंचिका (अर्थी) को लेकर अपने गांव में लौट आते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर से भित्र कोई जीव नामक पदार्थ नहीं है, क्योंकि वह शरीर से भिन्न प्रतीत नहीं होता। (अत; जो लोग शरीर से भिन्न जीन का अस्तित्व नहीं मानते, उनका यह पूर्वोक्त सिद्धांत ही युक्तियुक्त समझना चाहिए।) जेसि तं सुयषखाय भवति-"अनो भवति जीवो अन्नं सरीर" जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादन करते हैं कि 'जीव पृथक् तम्हा ते एवं नो विपडिवेति है और शरीर पृथक् है," वे इस प्रकार (जीव और शरीर को) पृथक्-गृथक् करके नहीं बता सकते किअपमाउसो ! आता बोहे ति वा हस्से ति वा परिमंडले ति यह आत्मा दीर्ष (लम्बा) है, यह ह्रस्व (छोटा या ठिगना) वा घट्ट सिया तसे ति वा चउरसे तिचा छलसे ति का है, यह चन्द्रमा के समान परिमण्डलाकार है, अथया गेंद की तरह अद्भुसे ति वा आयते ति वा , गोल है, यह विकोण है, या चतुष्कोण है, या यह पट्कोण या कण्हे ति या णीले ति था लोहिते ति वा हालिडे ति वा अष्टकोण है, यह आयत (चौड़ा) है, यह काला है अथवा नीला सुस्मिगंधे सि या बुब्मिगंधे ति वा तिते तिश कए तिचा है, यह लाल है या पीला है या श्वेत है, यह सुगन्धित है या कसाए ति वा अंबिले ति वा महुरे ति वा फक्खजे ति वा दुर्गन्धित, यह तिक्त (तीसा) है या कड़दा अथवा कसला, खट्टी मजए ति वा गरुए ति वा सिते ति वा उसिणे ति या णिसे या मीठा है, अथवा यह कर्कश है या कोमल है अथवा भारी ति वा सुश्खे ति वा । (गुरु) है या हलका (लघु) अथवा शीतल है या उष्ण है, स्निग्ध है अथवा रूक्ष है। एवमसतो असंविज्ञमाणे । इसलिए जो लोग जीव को मारीर से भिन्न नहीं मानते, उनका मत ही युक्ति संगत है। जेसि तं सुरक्खायं भवति "अटो जीयो अन्नं सरीरं", तम्हा जिन लोगों का यह कथन है कि जीव अन्य है, और शरीर से णो एवं उबलमंति अन्य है, वे इस प्रकार से जीप को उपलब्ध (प्राप्त) नहीं करा पाते .. १ पत्तेणं कमिणे आवा जे बाला जेय पंडिता, संति पेन्वा ण ते संति णस्थि पत्तोवपानिया 1 पत्ति पुणे व पाने वा पत्थि लोए इतो परे, सरीरस्म विणासेणं विणासो होति देहिणो॥ -सूय. सु. १, अ. १, उ. १, गा. ११-१२
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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