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सूत्र ३३२.३३३
तेजस्कायिक जीवों का आरम्मम.करने की प्रतिज्ञा
परिवाधार
[२३३
एत्थ वितेसि णो मिकरणाए।
अपने शास्त्र का प्रमाण देकर गलकाथ की हिंसा करने वाले साधु हिसा के पाप से विरत नहीं हो सकते अर्थात् उनका हिसा
न करने का काम पूर्ण नहीं हो सकता । एप सत्य समारंभमाणस्स इमचेते आरम्मा अपरिष्णाया जो यहां, अस्म-प्रयोग कर जलकाय जीवों का समारम्भ भवंति।
करता है, वह इन आरम्भों (जीवों की वेदना व हिंसा के
कुपरिणाम) से बच नहीं पाता। एश्य सत्यं असमारंभमानस्स इन्वेते आरम्मा परिणाया जो जलकायिक जीवों पर शस्त्र-प्रयोग नहीं करता, बह भति।
आरम्भों का ज्ञाता है, वह हिंसा-दोष से मुक्त होता है। अर्थात् बह ज-परिशा से हिंसा को जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसे
स्याग देता है। तं परिष्णाय मेहारी पेय सयं उत्पसत्यं समारंभेज्जा, पे- बुद्धिमान मनुष्य यह (उक्त कथन) जानकर स्वयं जलकाय नहि उपयसत्य समारंभावेज्जा, उदयसत्वं समारंभते अण्णे का समारम्भ न करे, दूसरों से न करवाए और उसका समारम्भ ण समणुजाणेरणा ।
करने वालों का अनुमोदन न करे । जस्सेते उवयसत्यसमारमा परिणाया भवंति से। मुणो जिसको जल-सम्बन्धी समारम्भ का ज्ञान होता है, वही परिपरिणातकम्मे त्ति बेमि ।
ज्ञातकर्मा (मुनि) होता है। -आ. सु., अ.१.३.३, शु. २३-३१ तेउकाहयागं अणारंभ-करण पहण्णा
तेजस्कायिक जीवों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३३३. सेविसमतमक्खाया अणेगमीया पुढोसत्ता असत्य सत्य- ३३३. शस्त्र-परिणति से पूर्ष तेजस् चित्तवान् (सजीव) कहा परिगएणं ।
गया है । वह अनेक जीव और पृथक् सत्वों (प्रत्येक जीव के -दस. अ. ४, सु६ स्वतन्त्र अस्तित्व) वाला है।
.. से मिक्खू वर भिक्खनी वा संजय-विरय पडिहप-परचक्खाय- संयत विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्ष अथवा पायकम्मे ।
भिक्षुणी। पिया वा राओवा एगो वा परिसामओ वा सुत्ने वा जागर- दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद में, सोते या माणे बा
जागतेसे आणि वा इंगा वा मुम्मुरं वा अघि वा जालं श अग्नि, अंगारे, मुर्मर, अत्रि, ज्वाला, अलात (अघजसी अलायं वा सुवाणि वा उक्कं वा, न उमेजा न घट्ट जान लकड़ी), शुद्ध (काष्ठ रहित) अग्नि अथवा उल्का का न उत्सेचन जन्जालेज्जा न निठवावेज्जा।
करे, न घट्टन करे, न उज्ज्वालन करे और न निर्वाण करे
(न बुझाए); अन्न न उजावेज्जा न घट्टावेज्जा न मज्जालावेज्जा न निम्बा- न दूसरों से उत्सेचन कराए, न घट्टम कराए, न उज्ज्यालन वेजा।
कराए और न निर्वाण कराए; अम्नं उज्जतं वा घट्टन्तं वा उज्जालंसं वा निस्वावंतं या न सत्सेचन, घट्टन, उज्ज्वालन या निर्वाण करने वाले का समणुमागेज्मा आवज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेगं वायाए अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से काएगं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समग- मन से, वचन से, काया से, न करूगा, न कराउँगा और न करने जाणामि।।
वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा।
१ इंगाल अगणि अच्चि, अलायं वा संजोइयं । न उजेजजा न घट्टे ज्जा, नो गं निश्वावए मुणी ।।
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स.अ.८, गा. 5