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________________ २३४] वरणानुयोग तेजस्काषिक एक अमोघ शास्त्र, सूत्र ३३४-३३५ तस्स मंते ! पडिकमामि निरामि परिहामि अप्पागं वोति- भन्ते ! मैं अतीत के अग्नि-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि। उसकी निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और (कषाय) आश्मा का -इस. अ. ४, सु. २० व्युत्सर्ग करता हूँ। तेजकाओ अमोहसत्थो तेजस्कायिक एक अमोघ शस्त्र३३४. विसप्पे सम्वोधारे, बहुपाणविकासमे ३३४. अग्नि फैलने वाली, सब ओर से धार वाली और बहुत भारिप जोइसमे सत्थे, तम्हा जोई न बीवए ।। जीवों का विनाश करने वाली होती है, उसके समान दूसरा कोई -उत्त, अ. ३५, गा. १२ शस्त्र नहीं होता, इसलिए भिक्षु उसे न जलाए। तेउकाइयाणं हिसा निसेहो तेजस्कायिक जीवों की हिंसा का निषेध३३५. जे वोहलोगसत्थस्स सेयष्णे से असत्यस्स खेयने । ३३५. जो दीर्घलोक शस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है। मे असत्यरस वेपणे से बीहलोगसस्थस्स यग्ने । जो संयम का स्वरूप जानता है वह दीर्घलोक शस्त्र का स्वरूप भी जानता है। बारह एवं अभिभूप डिं संजतेहि सया जतेहि सवा अप्प- वीरों (आत्मज्ञानियों) ने, ज्ञान-दर्शनावरण आदि कर्मों को महि। विजय कर (नष्ट वार) यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है। वे चीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे। जे पमते गुणद्वित्ते सेहरी परुति । जो प्रमत्त है, गुणों (अग्नि के रांधना-पकाना आदि) का अर्थी है, वह दण्ड-हिराक कहलाता है। तं परिणाय मेहावी हवागों को जमहं पुष्वमकासो पमावेगे। यह जानकर मेधावी पुरुष (संकल्प करे)- अब मैं वह (हिसा) नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमाद के वश होकर पहले किया था। सजमाणा पुढो पास । तू देख ! सच्चे साधक (मग्निकाय की) हिंसा करने में लज्जा अनुभव करते हैं। अगमारा मोति एगे पमयमाणा, अमिगं विस्यवेहि सत्येहिं और उनको भी देख जो अपने आपको 'अनगार" घोषित अपणिकम्मसमरंमेणं अगणिसत्य समारंभमागे अण्णेवानेगहने करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) द्वारा अग्नि पाणे बिहिसति। सम्बन्धी आरम्भ समारम्भ करते हुए अग्निकाय के जीनों की हिंसा करते हैं, और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं। सत्थ खतु भगवता परिष्का परिता इस विषय में भगवान ने परिज्ञा अर्थात् विवेक का निरूपण किया है। इमस्स चेव जोबियस्स परिवंक्षण मागण-पूरणाएं जाती-मरण- अपने इस जीवन से लिए, प्रशंसा, सम्मान और पुजा के मोयणाए पुरयापविधातहेतु, लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए दुखों का प्रतिकार करने के लिए (इन बाारणों से) से सयमेव अगणिसावं समारभति, सोहिंवा अगणिसत्यं कोई स्वयं अग्निकाय की हिंसा करता है, दूसरों से भी समारमावेति, अण्णे ना अगगिसत्यं समारभमाणे समनु- अग्निकाय की हिंसा करवाता है और अग्निकाय की हिंसा करने जाणति। वालों का अनुमोदन करता है। त से अहिसाए, तं से प्रबोधीए। यह हिसा, उसके अहित के लिए होती है तथा अबोधि का कारण बनती है। से सं संयुज्ममाणे मायागीय समुट्ठाए। वह साधक यह समझते हुए संयम-साधना में तत्पर हो जाता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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