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________________ सूत्र ३३५ तेजस्कायिक जीवों की हिंसा का निषेध चारित्राचार १२३५ खख निरए। सोचा भगवतो अणगाराकं वा अंतिए इह मेगेसि जातं भगवान् से या अनगार मुनियों से सुनकर कुछ मनुष्यों को प्रवतिएस खलु गये, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस यह परिज्ञान हो जाता है, कि यह जीव हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है और नरक है। M लोए, गमिणं विरूवड्वेहि सत्यहि अगणि. फिर भी मनुष्य इम जीवन (प्रशंसा, सन्तान आदि के लिए) गाणिसत्यं समारंममाणे अषणे बाणगरूर्व में कासक्त होता है। जो कि यह तरह-तरह के शस्त्रों से अग्निपाये विहिंसति । काय की हिंसा-त्रिया में संलग्न होकर अनिकायिक जीवों की हिंसा करता है । वह न केवल अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है। से बेमि–संति पागा पुढविपिस्सिता तगनिस्सिता पणि- मैं कहता हूँ-बहुत से प्राणी-पृथ्वी, तृण, पात्र, काष्ठ, स्सिता कट्टणिस्सिता गोमपपिस्सिता कयवरपिस्सिसा। गोवर और कड़ा-कचर। आदि के आश्रित रहते हैं। सहि संपातिमा पाणा आहाच संपयन्ति य । कुछ सम्पातिम-उड़ने वाले प्राणी होते हैं (कीट, पतंग, पक्षी आदि) जो उड़ते-उड़से नीचे गिर जाते हैं। अगणिव खलु पुद्रा एगे संघातमावज्जति। तत्ष संघास- ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात (शरीर का संकोच) मातिते तस्य परियावज्जति । जे तस्थ परियावज्जति ते को प्राप्त होते हैं । शरीर का संघात होने पर अम्नि की उम्मा तस्य उद्दायन्ति । से मूच्छित हो जाते हैं। मूच्छित हो जाने के बाद मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हैं। एत्यं सत्य समारप्रमाणस इच्चेते आरम्मा अपरिण्णाता जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र-प्रयोग करता है, वह इन भर्वति । आरम्भ-समारम्भ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिशात होता है, अर्थात् वह हिंसा के दुःखद परिणामों से छूट नहीं सकता है। एत्थ सत्य असमारंभमाणस्स इस्नेते आरम्भा परिणाता जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारम्भ नहीं करता है, वह भवति । वास्तव में आरम्भ का ज्ञाता अर्थात् हिंसा से मुक्त हो जाता है। तं परिणाय मेहावी नेव सयं अगणि-सस्थं समारंभेज्जा, यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं अग्नि-शास्त्र का समारम्भ न करे, मेषग्नेहि अगणिसत्यं समारंभनवेजा.. दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, अगणिसत्थं समारंभेमागे, अण्णे न समणुजाणेजा। उसका समारम्भ करने बालों का अनुमोदन न करे। अस्स एते अगणिकम्मसमारंभा परिमाता भवंति से हु मुणी जिसने यह अग्नि-कर्म-समारम्भ भली प्रकार समझ लिया परिणायकामे, है, वही मुनि है, वहीं परिशात-कर्मा (कर्म का शाता और त्यागी)। ति बेमि। -आ. सु. १, अ. १, छ. ४, सु. ३२-३८ -ऐसा मैं कहता हूँ। तं मिक्यु मोतफास परोवेवमाणगात उपसंकमित गाहायती शीत-स्पर्श से कांपते हुए पारीर वाले उस भिक्षु के पास स्या आकर कोई गहाति कहे अग्निकाय के शस्त्रों का उल्लेख करते हुए निर्वक्ति में इसके प्रकार बताये हैं१. मिट्टी मा धूलि (इससे वायु निरोधक वस्तु कर्दम आदि भी समझना चाहिए)। ३. आई वनस्पति, ४. उस प्राणी, ५. स्वकाय शस्त्र-एक अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र है। ६. परकाय शस्त्र-बल आदि, ७. तदुभय मिश्रित--जैसे तुष मिश्रित अग्नि यूसरी अग्नि का शस्त्र है। ८. भावशस्त्र-असंयम। -आचा. नि. गा.
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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