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वरगानुपीय
पापुकामिक जीवों का ARER करने की प्रतिमा
सत्र ३३५.३३६
आउसंतो समणा ! णो खसु ते गामधम्मा उठवाहति ?
आउसम्तो गाहावती! णो खलु मम गामधम्मा उग्याहं ति । सीतकासं गो खतु अहं संत्राएमि अहियासेत्तए।
आयुष्मान् श्रमण | क्या तुम्हें ग्रामधर्म तो पीडित नहीं कर रहा है ? (इस पर मुनि कहता है)
आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म पीडित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण में शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ (इसलिए मेरा शरीर शीत से प्रकम्बित हो
पो खलु मे कम्पति अगणिकार्य जालित्तए या पज्जालिसए (तुम अग्नि क्यों नहीं जला लेते ?) इस प्रकार गृहवा कार्य भाषावित्तए वा पयाचित्तए श अण्णेसि वा वय- पति द्वारा कहे जाने पर मुनि कहता है-) अग्निकाय को उज्ज्वगाओ।
लित करना, प्रज्वलित करना, उससे शरीर को थोड़ा सा भी
तपाना या दूसरों को कहकर अग्नि प्रज्वलित कराना अकल्पनीय है। सिया एवं ववंतस्स परो अगणिकाये उज्जालेता पज्जालेता (कदाचित वह गृहस्थ) इस प्रकार बोलने पर अग्निकाय को कार्य आपावेज्जा वा ययावेजा वा। तंत्र भिक्खू पडिले- उज्ज्वलित-प्रज्ज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा तपाए या हाए भागमेसा माणवेज्जा मगरसेवणाए सि बेमि। विशेष रूप से तपाए। उस अवसर पर अग्निकाय के आरम्भ को --आ. सु. १, प. ८, उ. ४, सू. २११-२१२ भिक्षु अपनी बुद्धि से विचार कर आगम की आज्ञा को ध्यान में
रखकर उस गृहस्य से कहे कि अग्नि का सेवन मेरे लिए असेय
नीय है। जे मायरंग पियरं व हेचा,
जो अपने माता और पिता को छोड़कर श्रमणवत को धारण समणश्ववे अगणि समारभेजा। करके अग्निकाय का समारम्भ करता है तथा जो अपने सुख के अहाट से लोगे कुसीलधम्मे,
लिए प्राणियों की हिंसा करता है, वह लोक में कुभील धर्म वाला भूताई जे हिसति मातसाते ॥ है, (ऐसा सर्वज्ञ पुरुषों ने) कहा है । उग्जालओ शणऽतिवातएज्जा,
आग जलाने वाला व्यक्ति प्राणियों का घात करता है और निस्वावमओ अगणि तिवातहज्जा । आग बुझाने वाला व्यक्ति भी अग्निकाय के जीवों का पात करता तम्मा उ मेहायि समिक्स धम्म,
है। इसलिए मेधावी (मर्यादाशीस) पण्डित (पाप से निवृत्त ण पंडिते अगणि समारभेजा। साधक) अपने (श्रु तचारित्ररूप श्रमण) धर्म का विचार करके
अग्निकाय का समारम्भ न करे। पुति दिजीवा मा वि जीवा,
पृथ्वी भी जीव है, जल भी जीव है तथा सम्पातिम (उड़ने पाणा य संपातिम संपयन्ति । दाले पतंगे आदि) भी जीव है जो आग में पड़कर मर जाते है। संसेवया कटुसमसिता य,
और भी पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव एवं काष्ठ (लकड़ी एते दहे अगणि समारमंते ॥ आदि ईंधनों) के आश्रित रहने वाले जीव होते हैं। जो अग्नि-~-सूय. सु. १, अ. ८, गा. ५-६ काय का समारम्भ करता है, वह इन (स्थावर-स) प्राणियों को
जला देता है। बाउकाय अणारम्भ करण पद्दण्णा
वायुकायिक जीवों का आरम्भ न करने की प्रतिज्ञा३३६. माउ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसता अन्नत्य सत्य- ३३६. शस्त्र-परिणति से पूर्व वायु चित्तवान् (सजीव) कहा गया परिणए।
है। वह अनेक जीव और पृथक् सत्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र
-स. अ. ४, सु.५ अस्तित्व) वाला है। से मिक्खु वा मिक्वणी वा संजय-विश्य-पहिय-पच्चखाय- संयत-विरत - प्रतिहत - प्रत्याख्यात • पापकर्मा भिक्षु अथवा पायकम्मे,
भिक्षुणी। बिया वा राओ था एगओ चा परिसागबो वा सुते वा नागर- दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते या माणे वा--
आगते