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________________ पुष १४२-१४५ आशातना के प्रायश्चित्त विनय नानाचार जो पवयं सिरसा भेत्तुमिच्छे, कोई शिर से पर्वत का भेदन करने की इच्छा करता है, सोए मन मोह पीबडएला । हारो जगाता है और भाले की नोंक पर प्रहार करता है, जो वा दए सत्तिमग्गे पहार, गुरु की आशातना इनके रामान है। एसोवमामायणया गुरुपं । सिया हु सोसेण गिरि पि भिदे, सम्भव है गिर से पर्वत को भी भेद डाले, सम्भब है सिंह सिया र सीहो कुविओ न भक्खे । कुपित होने पर भी न खाए और यह भी सम्भव है कि भाले की सिया न भिवेज व सत्तिमग, नोंक भी भेदन न करे, पर गुरु को अवहेलना से मोक्ष सम्भव न यावि मोवखो गुरुहोलणाए । नहीं है। आयरियपाया पुण अप्पसला, आचार्यपाद के अप्रसन्न होने पर दोधि-लाभ नहीं होता। अबोहिआसापण नत्यि मोक्यो। आयातना से मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए मोक्ष-सुख चाहने वाला अणाबाहसुहाभिकखी, मुनि गुरु-कृपा के अभिमुख रहे । गुराष्पसायाभिमुही रमेज्जा॥ दस. अ. ६, उ. १, गा. २-१० आसायणाए पायच्छित आशातना के प्रायश्चित्त१४३. जे भिक्खू आयरिय-उवमाया सेज्जा-संपारयं पाएग १४३. जो भिक्षु आचार्य उपाध्यायों की शैया स्तारक को पैर से संघट्टत्ता हत्येणं अग्णपणवेत्ता धारयमाणे गच्छद गछतं वा छूकर हाथ से विनय किये बिना जाता है, जाने के लिए कहता है, साइज्जा। जाने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमागे आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । वह भिक्षु लघु चातुर्माभिक परिहार प्रायश्चित्त का पात्र ___-नि. उ. १६, मु. ३६ (५१) होता है। १४४.जे भिक्खू भिक्खं अब्जयरीए अचासायणाए अच्चासाए १४४, जो भिक्षु भिक्षु को किसी एक प्रकार की आशातना करता अचासायंतं बा साहज्जइ । है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आयज्जा पाउम्मासियं परिहारद्वागं उन्धाइयं । बह भिक्षु चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान प्रायपिवस] -नि.उ. १५, सु.४ का पात्र होता है। अविणयकरणस्स पायच्छित्त अविनय करने का प्रायश्चित्त१४५. जे भिक्खू भवंतं आगावं वयह वयंतं वा साइजइ । १४५. जो भिक्ष आचार्य को अपशब्द कहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्ख भवंत फरस वयह वयंतं वा साइज्जइ। जो भिक्षु आचार्य को कठोर वचन कहता है. कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्ख भवंतं आगाई फरसं बबइ ययंत वा साइज्जइ। जो भिक्षु आचार्य को अपशब्द और कठोर वचन कहता है, कहलवाता है, कहने वाले का अनुमोदन करता है। के मिक्ल भवंतं अग्गयरीए अच्चासायणयाए अच्चासाएर जो भिक्षु आचार्य की किसी एक प्रकार की आशातना करता अश्चासायंत वा साइम्जा। है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारटाणं अणुग्धाइयं। वह भिक्षु गुरु चातुर्मासिक परिहार प्रायश्चित्त स्थान का पार - नि. उ. १०, सु. १-४(५१) होता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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