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चरणानुयोग
आशातमा के फल का निरूपण
सूत्र १४१-१४२
२७. धोमहोणं,
(२७, घोषहीन उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का यथार्थ
उच्चारण न करना। २८. सुबिन्न,
(२८) मुष्ठुदत्त-शिष्य को उसकी योग्यता से अधिक पढ़ाना। २६. बुपडिच्छिएं,
(२६) दुष्टप्रतिच्छित-श्रुत को दुर्भाव से ग्रहण करना। २०. भास की सजाओ,
(३०) अकाल में स्वाध्याय करना—कालिक श्रुत को अकाल
में पढ़ना, और उत्कालिक श्रुत को अस्वाध्यायकाल में पढ़ना । ३१. काले न ओ सजलाओ,
(३१) काल में स्वाध्याय न करना-कालिक और उत्कालिक
आगमों को निश्चित स्वाध्यायकाल में न पड़ना । ३६. असजमाइए सज्वाइयं,
(३२) अस्वाध्याय में स्वाध्याय करना-बत्तीस अस्वाध्यायों
में स्वाध्याय करना। ३३. सम्माइए म सज्माइयं ।
(३३) स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना जिस समय -आव. अ. ४, सु. २६ बत्तीस अस्वाध्याय में से एक भी अस्वाध्याय न हो, फिर भी
स्वाध्याय न करना। आसायणा-फल-निरूवणं
आशातना के फल का निरूपण१४२. यादि मंदि ति गुरु वित्ता,
१४२. जो मुनि गुरु को-."ये मंद (अल्पप्रज्ञ) हैं", ये "ये अल्पउहरे इमे अप्पमुए सि नचा। व्यस्क और अल्प-श्रुत हैं", ऐसा जानकर उनके उपदेश को मिथ्या हीलंति मिच्छं पडिबजमाणा,
मानते हुए उनकी अवहेलना करते हैं। वे गुरु की आणातना करति आसरयण ते गुरु ।। करते है। पगईए मंदा वि भवंति ए,
कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से मन्द (अल्प-प्रज) हरा वि य जे सुयबुद्धोवत्रेया। होते है और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और बुद्धि मे मायारमंता गुणमुट्टिअप्पा,
सम्पन्न होने हैं। आचारवान् श्रीर गुणों में मुस्मिनात्मा आचार्य, जे होलिया सिहिरिव भास कुज्जा ॥ भले फिर दे मन्द हो या प्राज्ञ, अवज्ञा शप्त होने पर गुण-राशि को
उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं जिम प्रकार अग्नि ईंधन-राशि को। जे यावि नाग रहरे ति बच्चा,
जो कोई—यह सर्प छोटा है-ऐसा जानकर उसकी आणाआसायए से अहियाय होई। तना (कदधंगा) करता है, वह (सई) उसके अहित के लिए होता एयायरियं पिइ होलयातो,
है। इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करने वाला नियच्छई जाइपहं च मंवे।। मम्द संमार में परिभ्रमण करता है। आसीविसो याषि परं सुट्टो,
आशीविष सर्प अत्यन्त ऋद्ध होने पर भी "जीवन-नाश" से कि जीवनासाओ परं न कुज्जा। अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु आवार्यपाद अप्रसन्न होने पर आयरियपाया पुण अपसन्ना,
अबोधि के कारण बनते हैं । अतः आ णासना से मोक्ष नहीं मिलता। अयोहिआसायण नस्थि मोक्यो। जो पावर्ग जलियमवयक मेज्जा,
कोई जलती अग्नि को लांघता है, आशीविष मर्प को कुपित आसीविसं वा विहु कोवएज्जा। करता है और जीवित रहने की इच्छा से विष खाता है, गुरु की जो वा विसं खायइ जीवियट्टी,
आशातना इनके समान है । वे जिस प्रकार हित के लिए नहीं होते, एसोवमासायणया गुरुगं ॥ उसी प्रकार गुरु की आशातना हित के लिए नहीं होती। सिया ह से पाय नो दहेज्जा,
सम्भव है कदाचित् अग्नि न जलाए, सम्भव है आशीविष सर्प आसीवितो वा कुविओ न भरखे। कुपित होने पर भी न खाए और यह भी सम्भव है कि हलाहल सिया विसं हातहसं मारे,
विष भी न मारे, परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष सम्भव नहीं है। बाषि मोचो गुवहीलणाए ।