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चरणानुयोग
तृतीय ईश्वरकारणिकवादी को श्रद्धा का निरसन
सूत्र २४०
१. से जहानामए गंडे सिया सरीरे जाते सरीरे युद्ध सरीरे (१) जैसे कि किसी प्राणी के शरीर में हुआ फोड़ा (गुमड़ा) अभिसमष्णापते सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति । एयामेव धम्मा शरीर से ही उत्पन्न होता है, शरीर में ही बढ़ता है, शरीर का वि पुरिसादीपा-जाव-पुरिसमेव अभिमूय चिट्ठन्ति । ही अनुगामी बनता है और शरीर का आधार लेकर टिकता है,
इसी तरह सभी धर्म (पदार्थ) ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर से ही वृद्धिंगत होते हैं, ईश्वर के ही अनुगामी होते है. ईश्वर का
आधार लेकर ही स्थित रहते हैं। २. से जहाणामए अरइ सिया सरीरे जाया सरीरे अभिसंकुड्डा (२) जैसे अरति (मन का उद्घग) शरीर में ही उत्पन्न होती सरीरे अभिसमध्यागता सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति । एकामेत्र है, शरीर में ही बढ़ती है, शरीर की अनुगामिनी बनती है, और धम्मा पुरिसावीया-जाव-पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठन्ति । शरीर को ही मुख्य आधार बना करके पीड़ित करती हुई रहती
है, इसी तरह समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होकर-पाव
उसी से वृद्धिंगत और उसी के आश्रय से स्थित हैं। ३. से जहाणामए पम्मिए सिया पुरुषीजाते पुढवीसंवे (३) जैसे बल्मीक (कीरविशेषकृत मिट्टी का स्तूप या पुडवो अमिसमण्णागते पुषीमेव अभिभूय चिति । एवामेव दीमकों के रहने की बांबी) पृथ्वी से उत्पन्न होता है, पृथ्वी में ही धम्मा वि पुरिसावीया-जाव-अभिभूय चिन्ति । बढ़ता है, और पृथ्वी का ही आश्रय लेकर रहता है, वैसे ही
समस्त धर्म (पदार्थ) भी ईश्वर से ही उत्पन्न होकर-याव
उसी में लीन होकर रहते हैं। ४. से जहागामए रखे सिया पुढषोजाते पुढविसंवढे पुढवि- (४) जैसे कोई वृक्ष मिट्टी से ही उत्पन्न होता है, मिट्टी अभिसमण्णागते पुरविमेव अभिभूय चिटुति । एकामेब धम्मा से ही उसका संवर्द्धन होता है, मिट्टी का ही अनुगामी बनता वि पुरिसाइया-जाव-अभिभूय चिट्ठन्ति ।
है, और मिट्टी में ही ब्याप्त होकर रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संबद्धित और आनुगामिक होते हैं और अन्त में
उसी में क्याप्त होकर रहते हैं। ५. से जहानामए पुक्खरणी सिया पुढविजाता-जाव-पुढवि- (५) जैसे पुष्करिणी (बावड़ी) पृथ्वी से उत्पन्न (निर्मित) मेव अभिभूय चिट्ठति । एवमेव धम्मा विपुरिसादीया-जाव- होती है, और--यावत्-अन्त में पृथ्वी में ही लीन होकर रहती पुरिसमेव अभिभूय सिट्ठन्ति ।
है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में
उसी में ही लीन होकर रहते हैं। ६. से जहाणामए उपयोक्दले सिया उदगजाए-जाव-उदगमेव (३) जैसे कोई जल का पुष्कर (पोखर या तालाब) हो, वह ममिभूय चिटुति । एवामेव धम्मा वि-जाब पुरिसमेव अभि- जल से ही उत्पन्न (निर्मित) होता है, जल से ही बढ़ता है, जल भूय चिट्ठन्ति ।
का अनुगामी होकर अन्त में जल को ही व्याप्त करके रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संबद्धित एवं अनुगामी होकर
उसी में विलीन होकर रहते हैं। ७. से महाणामए उदगबुम्बुए सिया उदगजाए-जाव-उदगमेव (७) जैसे कोई पानी का बृद् (दुलबुला) पानी में उत्पन्न अभिभूय चिटुति । एवामेव धम्मा वि पुरिसाईया-जाव- होता है, पानी से ही बढ़ता है। पानी का ही अनुगमन करता है पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठन्ति ।
और अन्त में पानी में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही सभी -सूय. सु. २, अ. १, मु. ६५९-६६० पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में व्याप्त
(लीन) होकर रहते हैं। जपि य इमं समणाणं गिग्गंधाणं उछि बियंजियं दुवास- यह जो श्रमणों-निग्रन्थों द्वारा कहा हुआ, रचा हुआ या संग गणिपिढगं, तं जहा
प्रकट किया हुआ, द्वादशांग गणिपिटक (आचार्यों का या गणधरों का ज्ञान पिटारा-शानभण्डार है), जैसे कि -