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________________ सूत्र २४७-२४८ तृतीय ईश्वरकारणिकवावी की बड़ा का निरसन से गो एवं विवेिति तं जहा- किरिया तिवा-जायअणिरए ति वा । एवामेव ते विवेहि कम्मसमारंमेहि विरूवरुवाई कामभोगाई समारंभति भोयगाए । एकमेवारिया वियसिमाना पत्तियमाथा -जाव इति ते णो हब्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगे बिसा चलिए ति हिते। - सुय. सु. २, अ. १. सु. ६५८ सहसरका रणीय बाइए सह-रिस २४८ महावत पुईिसरकारबिए ति महि पावावी व संगतिया मगुस्सा प्रति अणुपुरुवेगं लोधं उवषन्ना, सं जहा--आरिया वेगे - महंते एगे राधा भवति जायतेगावति पुत्ता . सेसिन एवीएस पवति कामं तं क्षमा माहा पहारिनु गमगाए जायजा मे एस धम्मेशा सुते भवति । - इह व धम्मा पुरिसावीया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिसपज्जोइता पुरिस अभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । दर्शनाचार १५ वे (पंचमहाभूतवादी) क्रिया से लेकर नरक से भिन्न गति तक के (पूर्वोक्त) पदार्थों को नहीं मानते । इस प्रकार वे नाना प्रकार के सादद्य कार्यों के द्वारा कामभोगों की प्राप्ति के लिए सदा आरम्भ समारम्भ में प्रवृत्त रहते है अतः वे मना (धर्म से दूर) तथा विपरीत विचार वाले हैं। इन पंचमहाभूतवादियों के धर्म (दर्शन) में श्रद्धा रखने वाले एवं इनके धर्म को सत्य मानने वाले राजा आदि ( पूर्वोक्त प्रकार से इनकी पूजा-प्रशंसा तथा आदर सत्कार करते हैं, विनयभोगसामग्री इन्हें भेंट करते हैं। इस प्रकार सावद्य अनुष्ठान में भी अन मानने वाले ने महाभूतवादी स्त्री सम्बन्धी काम में मूच्छित होकर) न तो इहलोक के रहते हैं और न परलोक के । भ्रष्ट होकर पूर्ववत् बीच में ही कामभोगों में फँसकर कष्टों पाते हैं । यह दूसरा पुरुष पानमहाभूतिक कहा गया है। तृतीय ईश्वरकारणिकवादी की धडा का निरसन२४. दूसरे तक पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष "ईश्वरकारभिक" कहलाता है। इस मनुष्यलोक में पूर्व यावत्-उत्तर दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जो क्रमश: इस लोक में उत्पन्न हैं। जैसे कि उनमें से कोई आगे होते हैं, कोई अनार्य भादि प्रथम जोक सब वर्णन यहाँ जान देना चाहिए उनमें कोई एक श्रेष्ठ महान् गजा होता है। वहाँ से लेकर राजा की सभा के सभासदों (सेनापतिपुत्र) तक का वर्णन भी पूर्वोक्त वर्णनवत् समझ लेना चाहिए। इन पुरुषों में से कोई एक धर्मश्रद्धालु होता है। उस धर्मखालु के पास जाने का सवादित और ब्राह्मण (मान) निश्चय करते हैं। वे उसके पास जाकर कहते हैं- हे माता महाराज ! मैं आपको सच्चा धर्म सुनाता हूँ, जो पूर्वपुरुषों द्वारा कवित एवं सुप्रज्ञप्त है- यावत्-आप उसे ही सत्य समझें । धर्म (स्वभाव मा पदार्थ) हैं, वे सब पुरुषादिक हैं- ईश्वर या आत्मा (उनका ) आदि कारण है; वे सब पुरुषोत्तरिक हैं- ईश्वर या आत्मा ही सब पदार्थों का कार्य है, अथवा ईश्वर ही उनका संहारकर्ता है, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रणीत ( रचित) हैं, ईश्वर से ही उत्पन्न (जन्मे हुए) हैं, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रकाशित हैं, सभी पदार्थ ईश्वर के अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर टिके हुए हैं। इस जगत में जितने भी
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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