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________________ ५२] चरणामुयोग आराधना के फल की प्ररूपणा सूत्र ७४-७५ उक्कस्सा. मजिसमा जहन्ना। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । एवं बंसणाराहणा वि, दर्शन आराधना तीन प्रकार की कही गई है ... उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । चारताराहणा वि। चारित आराधना तीन प्रकार की कही गई है-- -ठाणं. अ. ३, उ. ४. मु. १६८ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । आराहणाफलपरूवणा आराधना के फल की प्ररूपणा - ७५.५०–उक्कोसियं णं भंते ! गाणाराहणं भाराहेत्ता कतिहिं ७५. प्र०-भगवन् ! ज्ञान की उत्कृष्ट आगधना करके जीव भवम्गहणेहि सिज्मति–जाव-अंतं करेति? कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है,-यावत् - सभी दुःखों का अन्त करता है? उ.-गोयमा ! अत्येगइए सेणेव भवम्हणेणं सिज्मति उ०—गौतम ! कितने ही जीव उसी भय में सिद्ध हो जाते - जाव-अंत करेति । अस्पतिर दोच्चेणं मपह- हैं, यावत्-सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं; कितने ही जीव गेणं सिज्मति --जाव-अंतं करेति । दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं-यावत सभी दुःखों का अन्त करते हैं, अत्यगतिए कम्पोषएसु वा कप्पातोएसु वा उवबज्जति । कितने ही जीव कल्पोपपन्न देवलोकों में अथवा कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । प.-उक्कोसियण मंते ! वसणाराहणं आराहेता कतिहि म --भगवन् ! दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करके जीव भवागहोहं सिज्मति–जाव-अंत करेति ? कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत्-सभी दुःस्त्रों का अन्त करता है? उ०—एवं चेव । गौतम ! जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानाराधना के फल के विषय में कहा है, उसी प्रकार उत्कृष्ट वर्शनाराधना के (फल के) विषय में समझना चाहिए। ५०--उक्कोसि गंभंते ! चारसाराहणं आराहेता कतिहि प्र.-भगवन् । चारित्र की उत्कृष्ट आराधना करके जीव भयरगहणेहि सिजाति-जाय-अंतं करेति ? किनने भव ग्रहण कारके सिद्ध होता है, रावत् -सभी दुःखों का अन्त करता है? 30 एवं चैव । 30-गौतम ! उत्कृष्ट ज्ञानाराधना के (फल के) विषय में नवर अत्यंगलिए कप्पातीएसु उववज्जति । जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार उत्कृष्ट चारित्राराधना के (फल के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि कितने ही जीव (इसके फलस्वरूप) कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। प०-मनिममियं गं मंते ! णाणाराहणं आराहेता कतिहिं प्र-भगवन् ! जान की मध्यम-आराधना करके जीव कितने भवागहगेहि सिझति--जाव–अंत करेति ? भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् - सब दुःखों का अन्त करता है ? 30-गोयमा ! अत्थेगतिए गेणं भवागहगेणं सिज्म उ०--गौतम ! कितने ही जीव दो भव ग्रहण करके सिद्ध –जाव–अतं फरेति, तच्चं पुण भवागणं माइश्क- होते है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं, वे तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। प०. मझिमियं णं भंते ! बंसणाराहणं आराहेता कतिहि प्रा-भगवन् । दर्जन की मध्यम आराधना करके जीय भवगणेहि सिक्सति–जावअंत करेति ? कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। उ.-एवं चेन । उ०—गौतम ! जिस प्रकार ज्ञान की मध्यम आराधना के (फल के) विषय में कहा, उसी प्रकार वर्शन की मध्यम आराधना के (फल के) विषय में कहना चाहिए।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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