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________________ सूत्र ३१-३३ मार्गतिक्रांत आहार रखने व खाने का निषेध व प्रायश्चित्त चारित्राचार एवणा समिति ******ww.www तं अपणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे, आज चाम्पासिये परिहारट्ठाणं उग्वाक्ष्यं ॥ C - कप्प. उ. ४ तु. १६ जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं या जाय साइमं वा पड़िगाता पछि पोरिसि उवाइणावेद वाणावतं वा ३२. नो कप निग्गंधाण वा निमयीन वा अवर्ण वा जाव साइमं वा परं अजयमेरे। जो भिक्षु प्रथम पोदिपी में अशन यावत्-स्वाद्य ग्रहण करके अन्तिम पोरिपी तक रहता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है । साइज तं सेवमाणे आवज्जह चाउम्मासियं परिहारद्वा उग्धायें । - नि.उ. १२. सु. ३० उसे चातुर्मासिक उद्घाटिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है | मग्गातिकांत आहार रक्खण भूज विहो पायच्छित मार्गातिकान्त आहार रखने व खाने का निषेध व च प्रायश्चित्त ३२. निन्यों और निर्यन्थियों को असन — यावत्-स्त्रादिम आहार अयोजन की मर्यादा से आगे अपने नाम रखना नहीं पता है । सेय आहच्च उवाणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुजेज्जा नो अन् अणुपदे । एगन्ते बहुफाए ष्टिले पडिलेहिता पमज्जित्ता परिवेयये सिया । तं अपणा मुंजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्वाइथं -कप्प . ४, सु १७ जे भिक्खू परं अजोयण मेराओ असणं वा जाव-साइमं वा उपा तं सेवमाणे आवज्जद्द नाउम्मासिवं परिहारट्ठाग्ायं । - नि. उ. १२. सु. ३१ आहारस्स बणं अवणं ण जिहि२३. रमन म पावति बा। पुट्ठो वा चि अपुट्ठो वा लाभालाभं न निहिये ।। - दस. अ. ८ गा. २५ उस आहार को स्वयं खाये या अन्य को दे तो वह उघातिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त का पात्र होता है। [cre - कदाचित् वहु आहार रह जाय तो उस आहार को स्वयं न खावे और न अन्य को दे || एक और सर्वथा अनि भूत लेखन एवं प्रमार्जन कर जब आहार को परठ देना चाहिए। यदि उस आहार को स्वयं खावे या अन्य को दे तो वह उदपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) का पात्र होता है। जो भिक्षु अर्ध योजन के उपरान्त अशन – पाथत् – स्वाद्य रखता है, रखवाता है रखने वाले का अनुमोदन करता है । चातुर्मादियासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है। आहार को प्रशंसा और निन्दा का निषेध ३२. बिल्ली के पूछने पर या बिना पूछे सर्व गुण सम्पन्न आहार के लिए यह बहुत बढ़िया है और बट्टा द्वारा आदि के लिए वह खराब है ऐसा न कहे तथा इनकी प्राप्ति वाति के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहे । १ कलाविक्रान्त और मार्गातिकान्त आहार के खाने का निषेध और परठने का विधान का तात्पर्य यह है कि उक्त दोनों प्रकार के आहारों में चौथे प्रहर के बाद तथा आधा योजन जाने के बाद संग्रह वृत्ति और जीव-संसक्तता आदि की सम्भावना रहती है । -- बृहतल्प भाष्य सू. १७ की टीका पृ. १४०० २ वर्षावास में यदि मार्ग के बीच में नदी बहती हो तो अर्ध योजना जाना भी नहीं कल्पता है। स्पष्टीकरण हेतु देखिए. वर्षावास दसा. द. सु. १०-११ समाचारी । T -
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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