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________________ ६१२] वरणानुयोग आहार लेने के कारण सूत्र २६-३१ ६. एगतीसं कुक्कुडो अंगप्पमाणमेले कवले माहारं (६) अपने मुखप्रमाण एकतीस करल आहार करने से आहारेमाणे किंणोमोयरिया । किंचित् ऊणोदगिका कही जाती है। ७. बत्तीस फुफ्फुदि अंगप्पमाणमेत कवले आहारं (७) अपने मुखप्रमाण बत्तीरा क्वल आहार करने से प्रमाण आहारेमाणे पमाणपत, प्राप्त आहार कहा जाता है। एतो एकेण वि फवलेण ऊणगं आहारं आहारेमार्ग इससे एक भी कवन कम आहार करने वाला श्रमण नम्रन्थ समणे निग्थे नो पकामनोहति वत्सध्वं स्थिा। प्रकामभोजी नहीं कहा जा सकता है । एस गं गोयमा! खेत्ताइक्कंतस्स, कारलाइपकंतस्म, हे गौतम । इस प्रकार क्षेत्रातिकान्त, कालातित्रान्स, मार्गामग्याहरकतस्स, पमाणाइक्कंसस्त पाण-भोयणस्स तिकान्त और प्रमाणातिक्रान्स पान-भोजन का यह अर्थ कहा अठे पण्णते।' –वि. स. ७, उ.१, सु. १६ गया है। आहारकरण कारणा आहार लेने के कारण२६. हि ठाणेहि समणे निगं ये आहारमाहारेमाणे णातिक्कति, २६. छह कारणों से श्रमण निर्गन्य आहार बो ग्रहा करता हुआ तं जहा भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नही वारता है । जैसेयेयण वेयावच्चे, इरिपट्टाए य संजमट्ठाए । (१) वेदना --भूख की पीड़ा दूर करने के लिए। तह पाणवत्तियाए, छठं पुण धम्मचिसाए ॥ (२) गुरुजनों की पावृत्य करने के लिए। .-ठाण. अ. ६.सु.५०० (३) ईर्यासमिति का पालन करने के लिए। (४) संयम की रक्षा के लिए । (५) प्राण-धारण करने के लिए। (६) धर्म का चिन्तन करने के लिए। आहार अकरग कारणा आहार त्यागने के कारण२०. छह ठाणेहि समणे णिगंये आहारं बोचिळवमाणे पातिकक-३०. छह कारणों से घमण निग्रंथ आहार का परित्याग करता मति, तं जहा हुअा भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । जैसेआतंके उवसगे, तितिक्षणे बंमचेरगुतीए । (१) अतंक - वर आदि आकस्मिक रोग हो जाने पर । पाणिदया-तबहे, सरोरवच्छेयगट्ठाए ।' (२) उपसगं-देव, मनुष्य, तिर्यचकृत उपद्रव होने पर। -ठाणं. अ. ६, सु.५०० (३) तितिक्षा-ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए। (४) प्राणियों की दया करने के लिए। (५) तप की वृद्धि के लिए। (६) शरीर व्युत्सर्ग (संथारा) करने के लिए । कालाइक्कंत-आहार-रवखण-भुजण-णिसेहो पायच्छित्तं कालातिक्रान्त आहार रखने व खाने का निषेध व प्रायश्चित्त११. नो कप्पद निर्णयाण वा, निग्गंथीण बा असणं वा-जान- ३१. निग्रन्थों और निग्रन्थियों को प्रथम पौरषी में ग्रहण किए साइमं या, पढमाए पोरिसीए पद्धिम्गाहेता, पच्छिम् पोरिसि हुए अशन-यावत् -स्वादिभ को अन्तिम पौरुषी तक अपने पास उवाहणावेत्तए। रखमा नहीं कल्पता है। से य आहाच उचाइणावए सिया तं नो अप्पणा मुंजेज्जा, कदाचित् वह आहार रह जाय तो उसे स्वयं न खाने और नो अन्लेसि अगुपज्जा । न अन्य को दे। एमन्ते बहुफामुए चंडिले पडिलेहिता पमज्जिता परिदृपवे किन्तु एकान्त और सर्वथा अचित्त मांडिल भूमि का प्रतिसिया। लेखन एवं प्रमार्जन कर उस जाहार को परठ देना पाहिए। १ व्यव. सूत्र ३०४ सू. १७ में अट्ट कुक्कुडी बत्तव्यं सिया तथा पाठ है। २ उत्त.. २६, गा. ३२ । २ -त्र्यव. भाष्य. गा. २६ से ३०१ की दीका उत्त. अ. २६, गा.३४ ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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