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मूत्र २८
क्षेत्रातिक्रान्त आदि दोष का स्वरूप
चारित्राचार : एषणा समिति
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खेत्ताइक्कतादिदोसाणं सरूवं
क्षेत्रातिकान्त आदि दोष का स्वरूप-... २८. प० - अह मते ! खेतातिलस्स काला तिक्तस्स, भग्गा- २८. H० - 'भगवान् ! क्षेत्रातिकान्त, कालातिक्रान्त, मार्गाति
तिक्तस्स, पमाणालिक्क सस्स पाणभोयणस्स के कान्त और प्रमाणातिकान्त पान-भोजन का क्या अर्थ कहा अठे पण्णते ?
गया है? उ० - गोयमा ! जे णं निग्गथे वा निगथी वा फासु एस- 3-गौतम ! जो निन्य या निर्ग्रन्थी प्रामुक और एष
णिज्जं असणं-जाव-साइमं अणुगते सूरिए पडिग्गा- पीय अशन यावत्-स्वादिम को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके हिला, उम्गते सरिए आहारं आहारेति !
सूर्योदय के पश्चात् उस आहार को करते हैं तो हे गौतम ! यह एस गं गोयमा ! खेतातिपकते पाण-भायणं ।। क्षेत्रातिकान्त पान-भोजन कहलाता है। जे गं निम्गये वा, निग्गयो श फासुएसणिज्ज असणं जो निर्गन्ध मा निर्गन्थी प्रासुक एवं एषणीय अशन-यावत्-जात-साइमं पड़माए पोरिसीए पडिगाहेत्ता, पच्छिम स्वादिम आहार को प्रथम प्रहर (परुषी) में ग्रहग करके चतुर्थ पोरिसं उवायणावेत्ता आहारं आहारेति । प्रहर तक रखकर सेवन करते हैं, तो एस गं गोयमा ! कालातिपकते पाप-भोयणे । हे गौतम ! यह कालातकान्त चान-भोजन कहलाता है। जे पं निम्नथे वा, निग्गंधी वा फासुएणिज्ज असणं जो निम्रन्थ या निग्रन्थी प्रासुक एवं एषणीय अशा -जाव-साइम पडिगाहिता परं अद्धजोयण मेराए वोति- स्वादिम आहार को ग्रहण करके आधे योजन-दो कोस (की मर्यादा) कमावेत्ता आहारमाहारेति ।
का उल्लंघन करके खाते हैं। एस पं गोयमा ! मम्मातिक्कते पाण-भोयणे ।
हे गौतम ! यह मागाँतिक्रान्त पान-भोजन बहलाता है । १. जे गं निग्गथे वा, निग्गथी वा फासुएसणिज्ज (१) जो निम्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक एवं एषणीय अणन असणं-आव-साहर्म पडिग्गाहेत्ता पर बत्तीसाए - यावत् - स्वादिम आहार ग्रहण करके अपने मुखप्रमाण बत्तीस कुक्कुरि अंग-प्पमाणमेत्ताणं कवला आहारं कवल से अधिक आहार करता है। आहारे।। एस णं गोयमा ! पमाणाइचकते पाण-भोयणे । है गौतम ! यह प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन कहा जाता है। २. अट्ट कुक्कुष्टि अंगप्पमाणमेले कवले आहार (२) अपने मुखप्रमाण आर कवल आहार करने से अल्पाआहारेमाणे अप्पाहारे।
हार कहा जाता है। ३. बुवालस कुक्कुडि अंगप्पमाणेमेत्ते कवले आहारं (३) अपने मुखप्रमाण बारह कवल आहार बरने से कुछ आहारेमाणे अवलमोरिया ।
कम अधं ऊनोदरिका नाही जाती है। ४. सोलस कुक्कुडि अंडगप्पमाणमेले कवले आहार (४) अपने मुखप्रमाण सोलह कल आहार करने से द्विआहारेमाणे दुभागपत्ते अमोमोयरिया।
भाग प्राप्त आहार और अद्धं कणोदरी कही जाती हैं। ५. उच्वीसं कुक्कुष्टि अंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं (५) अपने मुखमाग चौबीस कवल लाहार करने से आहारेमाणे तिभाग पत्ते, असिया ओमोपरिया । विभाग प्राप्त आहार और एक भाग ऊनोदरिका कही जाती है।
क्षेत्रातिकान्त-महा दोन शब्द का अर्थ है-सूर्य का ताप क्षेत्र, उसका अतिक्रमण करना धोत्रातिकान्त है। तात्पर्य यह है कि - जहाँ साधु-साध्या रहते हैं वह सूर्णेदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद याने रात्रि में आहार करना कोत्राविकान्त दोष है।
सूर्योदय बाद और मूर्यास्त पूर्व आहार करना दोवातिकान्त दोष नहीं है । २ "कुक्कुडि अंडग" शब्द की टीका में अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। यथा
(I) निजकस्याहारस्य सदा यो ताप्रियतमो भागो तत् कुस्कुटी प्रमाणे । (II) कुत्सिता कुटी कुक्कुटी शरीरमित्यर्थः । तस्या. शरीर रूपायाः कुतुया अंडकमिव अंटक-मुश। (III) यावत् प्रमाणमात्रेण कवलेन मुले प्रक्षिप्वमागेन मुखं न विकृतं भवति तत्स्थल कुक्कुटअंडक प्रमाणम् । (IV) अयमन्यः विकल्पः कुनछुटचंडकोषमे कवले । (V) अपमन्योऽ:-क्युटयंडक" प्रमाण मात्र शब्दस्येत्यर्थ : - एतेन कबलगायणादिना संख्या इष्टव्याः ।
-अभि. रा. कोय ऊणोयरिया प. १०६२।