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घरणानुयोग
मृषावाव विरमण महारत की पांच भावना
भूत्र ४२१
तस्मत ! परिकमामि-जाव वोसिरामि ।
इस प्रकार मृपाबाद-विरमण रूप द्वितीय महावत स्वीकार हाई अगा। पूर्वभाषित मृषावाद रूप) पाप का प्रति क्रमण करता हूँ,-यावत्-अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा
म्यूत्सर्ग (पृथक्करण) करता हूँ। तस्थिमाओ पंच भरवणाओ भवति ।
उस द्वितीय महाव्रत की पांच भावनाएं होती हैं... १. तरिथमा पढमा भावणा अनुवीयि भासी से णिाये, जो (१) उन पांचों में से पहली भावना इस प्रकार हैअगणुवोयि भासी।
वक्तव्य के अनुरूप चिन्तन करके बोलता है, वह निम्रन्थ है, बिना
चिन्तन किये बोलता है, वह निरन्थ नहीं है।' केवलो यथा--अपणुवोयि मासी से णिमये समावोजा केवली भगवान् ने कहा है बिना विचारे बोलने वाले मोसं वयणाए । अणुवीय भासी से निगये, णो अणवीयि निर्ग्रन्थ को मिथ्या भाषण का दोष लगता है । अतः वक्तव्य विषय भासी ति पदमा भावणा ।
के अनुरूप चिन्तन करके बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, बिना चिन्तन किये बोलने वाला नहीं। यह प्रथम
भावना है। २. अहावरा दोच्या भाषणा को परिजाणति से निगये, (२) इसके पश्चात् दूसरी भावना इस प्रकार है-क्रोध का णो कोष सिया।
कटुफल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है।
इसलिए साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिए। केवली ध्या-सोधपत्ते कोही समावदेमा मोसं अयगाए। केवली भगवान् ने कहा है-क्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति अणुवीवि भासो ? से निग्गंधे णो य कोहणाए सि (4) सि आवेशनश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है । अतः जो साधक बोपमा भावणा।
कोव का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है,
वही निर्गन्थ कहला सकता है, क्रोधी नहीं, यह द्वितीय भावना है । ३. अहावरा तच्चा भावणा-खोमं परिजाणति से णिगंथे (१) तदनन्तर तृतीय भावना यह है जो साधक लाभ का जो य लोमणाए सिया।
दुष्परिणाम जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ
है, अतः साधु लोभग्रस्त न हो। केवली यूपा - लोभपस लोभी समावषेज्जा मोसं वयगाए । केवली भगवान् ने कहा है कि लोभ प्राप्त व्यक्ति लोभासोमं परिजागति से गिरगंथे जो न लोभणाए सि (य) ति वेशवश असत्य बोल देता है। अतः जो साधक लोभ का अनिष्ट सरचा भावणा।
स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है. वही निर्ग्रन्थ है,
लोभाविष्ट नहीं । यह तीसरी भावना है। ४. अहावरा चउत्था भावणा-मयं परिजापति से निर्गधे (४) इसके बाद चौथी भाषमा यह है-जो साधक भय का यो । भयभीरूए सिया।
दुष्फल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है।
अतः साधक को भयभीत नहीं होना चाहिए। केवली खूया-मयपसे भीरू समावदेला मोसं वयणाए। केवली भगवान् का कहना है-- भय-प्राप्त भीरु व्यक्ति भयं परिजाणति से निगये, णो य भयभीवए सिया, चउरथा भयाविष्ट होकर असत्य बोल देता है। अतः जो साधक भय का भावणा।
यथार्थ अनिष्ट रवरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है,
वही निर्ग्रन्ध है, न कि भयभीत । यह चौथी भावना है। ५. अहावरा पंचमा भावणा-हासं परिजाणति से निग्गथे (५) इसके अनन्तर पांचवी भावना यह है-जो साधक णो महासगाए सिया ।
हास्य के अनिष्ट परिणाम को जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अतएव निर्धन्य को हंसोड़ नहीं होना चाहिए।