SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ४२१.४२३ सत्य संवर के प्रापक और आराधक चारित्राचार २९१ केवली या-हासपते हासी समाववेज्जा मोसं वयणाए। केवली भगवान् का कथन है -हास्यवश हमी करने वाला हासं परिजापति से निग्गंये पोय हासणाए सिय त्ति पंचमा व्यक्ति असत्य भी बोल देता है। इसलिए जो मुनि हास्य का भाषणा। भनिए जर उस पार देता है, वह निर्मन्थ है, न कि हंसी मजाक करने वाला । यह पाँचवी भावना है। एसाय ताव (बोच्च) महत्वयं सम्मं कारणं फासिते पालिते इस प्रकार इन पांच भावनाओं से विशिष्ट साधक द्वारा तोहित किट्टिते प्रति मागाए आराहित यावि भवति । स्वीकृत मृवावाद विरमण रूप द्वितीय सत्य महानत का काया से सम्यक्-स्पर्ग (आचरण) करने, उसका पालन करने, गृहीत महाव्रत को भलीभाँति पार लगाने, उसका कीर्तन करने एवं उसमें अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवद् आज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। वोच्चे मंते। महत्वए मसावायाची वेरमर्ण । हे भगवन् ! यह मुषावाद विरमण रूप द्वितीय महावत है। -- आ. सु. २,अ. १५, सु. ७००-७८२ सच्चवयणस्स परूवमा आराहगा य सत्य संवर के प्ररूपक और आराधक४२२. तं सन्दं भगवं तित्ययरसुभासियं वसविहं, ४२२. (१) वह सत्य भगवान् तीर्थंकरों द्वारा दस प्रकार का कहा गया है। चोदसपुष्योहिं पाहुबस्थविइय, महरिसीण व समयप्पडणं, (२) चतुर्दश पूर्वधरों ने प्राभुतों में प्रतिपादित सत्य के अंश को जाना है। महषियों ने सत्य का सिद्धान्त रूप में प्रतिपादित किया है। देविदारिय-मासियत्वं, बेमाणियसाहियं, महत्थं, मतोसहि- देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने सत्य को पुरुषार्थ साध्य कहा है। विज्ञा-साहणत्य, पारगमग-समण-सिद्धविम्ज, मणुयगगाणं वैमानिक देवों ने सत्य का महान् प्रयोजन साध लिया है। सत्य बंदणिज्ज, अमरगणा अचणिज्ज, असुरगणाणं पूणिलं, मन्त्र, औषधी तथा विद्याओं की साधना कराने वाला है। विद्याअगंगपासंजिपरिम्गहियं जंतं लोगम्मि सारभूयं । घरों चारणों एवं श्रमणों की विद्याएँ सत्य से ही सिद्ध होती हैं । -पान, सु. २, अ. २. सु.४ सत्य मनुष्यों के लिए वन्दनीय है, देवों के लिए अर्चनीय है और असुरों के लिए पूजनीय है। अनेक पाखण्डियों ने भी सत्य को ग्रहण किया है । सत्य लोक में सारभूत है। सच्चवयणस्स महप्पं सत्य वचन की महिमा - ४२३. जंयू ! विइयं य सम्मवयणं सुखं मुश्वियं सिर सुजाय सुभा- ४२३. हे जम्बू ! द्वितीय संवरद्वार सत्य है। लिय मुस्वयं सुकहियं सुष्टुि' सुपरद्विषं मुपदवियजसं सुसंज- यह सत्य वचन शुद्ध है, पवित्र है, शिव है, सुजात है. सुभामिय-वयग-युह्यं सुरवर-गरवसभ-पवरबलवग-सुविहिय-जग- षित है, सुनत है, सुकथित है, सुदृष्ट है सुप्रतिष्टित है, सुप्रतिष्ठित बहुमयं परमसाधम्मचरणं, सब-णियम परिसगहियं सुगइपह- यशवाला है, अत्यन्त संयत वचनों द्वारा कथित है. उत्तम देवों, देसमं व लोगुत्तम क्यमिणं । उत्तम पुरुषों, बलवानों तया सुविहित जनों द्वारा सम्मत है, परम साधुजनों का धर्मानुष्ठान है, तप और नियमों द्वारा ग्रहीत है, सद्गति का पथ प्रदर्शक है और यह वत लोक में उत्तम है। १ (क) समवापांग सूत्र में द्वितीय महाव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार हैं... (१) अनुबीचिभारण, (२) कोचविवेक, (३) लोभविवेक, (6) भयविक, (५) हास्यविवेक । -सम. सम. २५, सु. १ (ख) प्रश्नव्याकरण सूत्र में इस महानत की भावनाएं आचारांग सूत्र की तरह ही है। -प. सु. २, ब. २, सु. ११-१५ विस्तृत पाठ परिशिष्ट में देखें। २ ठाणं. अ.१०, सु.४१। -प.सु. २, अ. २, सु. १-३ वि
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy