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________________ ४७४ घरणानुयोग पांचों महानतों का परिशिष्ट सूच ७२५ आरम्म-परिग्महविरो कम्मतकरो भवह आरम्भ-परिग्रह विरत कों का अन्त करने वाला होता है - ७२५. १. इह खतु गारत्था सारम्भा सपरिग्गहा, संगतिया समण- ७२५. (१) इस लोक में गृहम् आरम्भ और परिग्रह से युक्त माहणा सारम्भा सपरिग्गहा, जे इमे तस-यावरा पाणा ते होते है, कई श्रमण और ब्राह्मण भी आरम्भ और परिग्रह से युक्त सयं समारम्भन्ति, अण्णेग बि समारम्भाति, अण्णं पि होते हैं। वे गृहम्य तथा श्रमण और ब्राह्मण इन अम और स्थावर समारंमंतं समणुजाणंति । प्राणियों का स्वयं आरम्भ करते है. दूसरे के द्वारा भी आरम्न कराते हैं और आरम्भ करने वाले का अनुमोदन करते हैं। २. इह खसु गारत्या सारम्मा सपरिगहा, संतेगतिया (२) इस जगत में गृहस्थ तो आरम्भ और परिग्रह रो युक्त समण-माहणा वि सारम्भा सपरिहा, जे इमे पागला हईई, कई महतकाम्भ और गरिग्रह से सचिता वा अचित्ता वा ते सयं वेब परिण्टिंति, अग्गेण युक्त होते हैं। वे गृहस्थ तथा श्रमण और ब्राह्मण सचित्त और वि परिगिण्हायति, अण्णं पि परिगिण्हतं समणुजाति । असिन दोनों प्रकार के काम-भोगों को स्वयं ग्रहण करते हैं, दूसरे से भी ग्रहण कराते हैं तथा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करते हैं। ३. इह खलु गारवा सारम्भा सपरिग्गहा, संगतिया (३) इस जगत में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह मे युक्त होते समणा माहणा वि सारम्भा सपरिग्गहा, अहं खलु अणार म्मे हैं. कई धमण और ब्राह्मण भी आरम्भ परिग्रह से युक्त होते हैं। अपरिग्गहे । जे खलु गारत्या सारमा सपरिग्गहा, संतेगतिया (ऐसी स्थिति में आत्मार्थी भिक्षु विचार करता है। मैं आरम्भ समण-माहणा वि सारम्भा सपरिग्गहा, एतेसि चैव निस्साए और परिग्रह से रहित हूँ। जो गृहस्व हैं, वे आरम्भ और परिग्रह बंभचेर चरिस्सामो। सहित है, कोई-कोई श्रमण तथा माहन भी आरम्भ परिग्रह में लिप्त है। अतः आरम्भ परिग्रह युक्त पूर्वोक्त गृहस्थ वर्ग एवं धमण माहनों के आश्रय से मैं ब्रह्मचर्य (मुनिधर्म) का आचरण करगा। प०-कस्स गं तं हे? प्र० आरम्भ-परिग्रह सहित गुहस्य वर्ग और कतिपय श्रमण ब्राह्मणों के निधाय में ही जब रहना है, तब फिर इनका त्याम करने का क्या कारण है ? उ०—महा पुरवं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुरुवं । अंज उ• गृहस्थ जसे पहले आरम्भ परिग्रह माहित होते हैं, वैसे चेते अणुवरया अगुवट्टिता पुणरवि तारिसगा चैव।। पीछे भी होते है. ए कोई-कोई थमण माहन पत्रज्या धारण करने स पूर्व जैसे आरम्भ-परिग्रहयुक्त होते है, इसी तरह बाद में आरम्भ परिग्रह में लिप्त रहते हैं। इगलिए ये लोग मावध आरम्भ-परिग्रह से निवृत्त नहीं हैं, अत: शुद्ध संयम का आचरण करने के लिए, भरीर टिकाने के लिए इनका आथय लेना अनुचित नहीं है। जे खलु गारस्था सारम्भा सपरिगहा, संगतिया आरम्भ-परिग्रह से युक्त रहने वाले जो गृहस्थ है, तथा जो समण-मारणा सारंमा सपरिग्गहा, दुहतो पावाई इति सारम्भ मपरिग्रह श्रमण-माहन हैं. वे इन दोनों प्रकार (आरम्भ संखाए दोहिं वि अंतेहिं अविस्समागे इति भिक्खू एवं परिग्रह की क्रिवाओं से या राग और द्वेष) में पाप कर्म करते रोएज्जा । रहते हैं । ऐसा जानकर साधु दोनों के अन्त मे इनसे अदृश्यमान (रहित) हो इस प्रकार संयम में प्रवृत्ति करे। से वेमि-पाईर्ण वा-जाव-दाहिणं वा एवं से परिपणात- इसलिए मैं कहता हूँ-पूर्व आदि (नारो) दिशाओं से आया कम्मे, एवं से बिवेयकम्मे, एवं से वियंतकारए भवतीति हुगा जो (पूर्वोक्त विशेषताओं से युक) निनु आरम्भ-परिग्रह से मक्वातं। रहित है, वही कर्म के रहस्य को जानता है, इस प्रकार वह कर्म —सूय. सु. २, अ. १, मु. ६७७-६७८ बंन्धन से रहित होता है तथा वही (एक दिन) कर्मों का अन्त करने वाला होता है, यह श्री तीर्थकर देव ने कहा है। *
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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