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________________ सत्र ७२३-२२४ पाँचौं महावतों को आराधना का फल चारित्राचार [४७३ एवं पंचम संघरदारं फासियं-जाव-आणाए आराहियं भवद। इस प्रकार यह पांचवां संवरद्वार शरीर द्वारा स्पृष्ट, पालित -यावत्-तीर्थंकरों की आज्ञा के अनुमार भाराधित होता है। एवं नायमणिणा भगवया पक्षविर्य परूवियं पसिद्ध सिद्ध ज्ञात मुनि भगवान् ने ऐसा प्रतिपादित किया है। युक्तिसिद्धबरसासमिण आर्यावयं सुवेसियं पसस्थं । पूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध है, सिद्ध और भवस्थ सिद्धों-पहसु. २, अ. ५, सु. १७ अरिहंतों का उत्सम शासन कहा गया है, समीचीन रूप से उप दिष्ट है । यह प्रशस्त संवरद्वार पूर्ण हुआ। *** पांचों महायतों का परिशिष्टपंचमहध्यय आराहणाफलं-- पाँच महाव्रतों की आराधना का फल७२४. एतेषु वाले य पकुष्यमाणे, ७२४. अज्ञानी जीव इन (पूर्वोक्त पृथ्वीकाय आदि) प्राणियों को आवट्टतो कम्मसु पावरसु। छेदन दन-उत्पीड़न आदि के रूप में कष्ट देकर पापकर्मों के अतिवाततो कीरति पावकम्म, आवर्त में फंस जाता है। प्राणातियात स्वयं करने से प्राणी निउंजमाणे उ करेति कम्मं ।। ज्ञानावरणीय पाप कर्म करता है, तथा दूसरों को प्राणातिपात पापकर्मों में नियोजित करके भी पाप कर्म करता है। आदोणभोई वि करेति पावं, दीनबृत्ति वाला भी पार करता है। यह जानकर तीर्थकरों मंता तु एमतसमाहिमाह। गे एकान्त (भावरूप ज्ञानादि) समाधि का उपदेश दिया है। बुद्धे समाहोय रते विवेगे, इसलिए प्रबुद्ध (शानी) समाधि और विवेक में रत होकर प्राणापाणातिपाता विरते ठितप्पा ॥ तिपात से विरत हो रिचतात्या रहे। --सूय, सु.१, अ.१०. गा. ५-६ सीहं जहा खुद्दमिगा चरंता, जैसे चरते हुए मृग आदि छोटें पशु सिंह (के द्वारा मारा दूरं चरति परिसंकमाणा। जाने) की गंका करते हुए दूर से हो (वनकर) रहते हैं. इसी एवं तु मेधावि समिक्स धम्म, प्रकार मेधावी साधक (समाधिरूप) धर्म को ममझकर पाप को रेण पार्य परिवज्जएज्जा ॥ दूर से ही छोड़ दे। संबुजामागे तु गरे मतीमं, समाधि को समझकर भनिमान् पूरुष दल हिया से उत्पन्न पावातो अप्पाणं निवट्टएज्जा। होगे हैं. और वैर परम्परा बांधनं वाले हैं, इसलिए ये महाभय हिंसप्पसूताई बुहाई मता. जनक है. अतः साधक हिसादि पापकर्म से स्वयं को निवृत्त करे। खेराणुबंधोपि महत्भयाणि ।। मुस न बूया मुणि असगामी, आत्मगामी मुनि अरान्य न बोले । मुनि मृषाबाद स्वयं न णिक्वाणमेयं कसिणं समाहि । करे। दूसरों के द्वारा न कराए नया करले वाले का अनुमोदन न सदं न कुज्जा न वि कारज्जा. करें । यह निर्वाण सम्पूर्ण ममाधि है। करेंतमन्नं पि प नाणुजाणे ॥ मुझे सिया जाए न दूसएज्जा, एषणा द्वारा लब्ध शुद्ध आहार को दूषित न करे, उसमें अमुच्छिते पं य अज्मोनवणे । मून्धित और आयत न हो. संयम में धृतिमान बाह्याभ्यन्तर धितिमं विमुक्के ग य पूयणट्ठी, परिग्रह में विमुक्त मुनि अपनी पूजा-प्रतिष्ठा एवं कीति का अभिन सिलोयकामी प परियएज्जा । लापी न होकर शुद्ध संयम में पराक्रम करे। निक्षम्म हाउ निराषकंत्री, घर से निकल कर (दीक्षा लेकर) अनासक्त हो, शरीर का कायं विओसज्ज नियाणछिपणे । ब्युल्सर्ग कर, कर्मबन्धन को छिन्न कर । न तो जीने की इजा नो जीवितं नो मरणाभिखी, करे और न ही मरण की। वह संसार-वलय (जन्म-मरण के चरेज्ज भिक्षु वलया विमुक्के । वरकर) से विमुक्त होकर संयम में विचरण करे । - -सूब. मु. १, अ. १०, गा. २४-२४
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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