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________________ ४७२] वरणानुयोग पांच अपरिग्रह महावत की पांच भावनाएं 'सूत्र.२३ पुणरवि फासिबिएग फासिय फासाई अमणुन्न पाव- इसके अतिरिक्त स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोक एवं पापक-असुहावने स्पों को छूकर रुष्ट नहीं होना चाहिए । प:-किसे? प्र०-से स्पर्श कौन से हैं ? To-मणेग-वध-बंध-तालगंकणा-अतिमाशरोषणए अंग- उ०. अनेक प्रकार के वध, बन्धन, ताडन-थप्पड़ आदि का मंजण-सूती-मखएवेस-पायपच्छयण-लक्साररस-खार- प्रहार, अंकन-तपाई हुई सलाई आदि से शरीर को दागना तेल्ल - कलकलंततउस-सीसक-काल लोह-सिंचण-हडि- अधिक भार का लाया जाना, अंग-भंग होना या किया जाना, बंधण - रज्जुनिगल-संकल• हत्थंडय फुमिपाक-रहण- शरीर में सुई या नख का चुभाया जाना, अंग की हीनता होना, सोह-युग्छन-उम्बंधग - मूलभेय • गयचलण-मलण-कर- लाख के रस, नमकीन (भार) तेल, उबलते शीशे या कृष्णवर्ण घरग-कन-मासोट-सीसष्ठयण-जिम्म छयण-वसण-नयण- लोहे से शरीर का सींचा जाना, काष्ठ के खोई में डाला जाना, हियम - संत-मंत्रण - बोत्त-लय-फसम्पहार पाव-परिह- रस्सी के निगड़ बन्धन' से बांधा जाना हथकड़ियाँ पहनाई जाना, माणु-पत्थर-निवाय-पोलग-कविक अगाणि विन्धुय. कुंभी में पकाना, अग्नि से जलाया जाना, सिंह की पूंछ से बाँध क-वायातव-समस कनिवाते खुट्टनिसज्ज-दुमिसीहिया- कर घसीटना, शूली पर चढ़ाया जाना, हाथी के पर से कुचला दुम्भि-कना-या सोय-उसिण हालेर स्वदित- गाना, हाप-पैर-कान-नाक-होंठ और शिर में छेद किया जाना, जीभ का बाहर खींचा जाना, अण्डकोश-नेत्र-हृदय-दांत या आत का मोड़ा जाना, गाड़ी में जोता जाना, बैत या चाबुक द्वारा प्रहार किया जाना, एडी, घुटना या पावाण का अंग पर आघात होना, यंत्र में पीला जाना, कपिकच्छू -अत्यन्त खुजली होना अथवा खुजली उत्पन्न करने वाले फल कैच का स्पर्श होता, अग्नि का स्वर्ण, बिच्छू के डंक का. वायु का, धूप का या डांसमाछरों का स्पर्श होना, दुष्ट-दोषयुक्त कष्ट जनक आसन तमा दुर्गन्धमय स्वाध्यायभूमि में, कर्कश, भारी, शीत, उष्ण एवं रूक्ष आदि अनेक प्रकार के स्पों में, अन्लेस व एकमाइएस फासेसु खमणुन-पाधकेसु तेसु इसी प्रकार के अन्य अमनोज स्पों में साधु को रुष्ट नहीं समभेण न कसियन-जाव-न दुगु छावत्तिय सभा होना चाहिए यावत् स्व-पर में वृणावृत्ति भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। एवं फासिवियभावणाभाविओ भवद अंतरप्पा माणुना- इस प्रकार स्पर्ण नेन्द्रिय संवर की भावना से भावित अन्त: मान-सुग्मि-दुरिम-राम-दोम-पणिहियल्पा साहू मण- करण वाला, मनोश और अमनोज. अनुकूल और प्रतिकुल स्पर्शी वयण-काय गुस्से संबडे पाहितिदिए चरेज्ज धम्म। की प्राप्ति होने पर राग-द्वेषवृत्ति का संवरण करने वाला साधु मन, वचन और कार से गुप्त होता है। इस भौति साधु संवृते—पण्ह. सु. २. अ० ५, सु० १२-१६ न्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। उपसंहारो उपसंहारएवमिगं संबरस्सबार सम्म संवरिय होइ सुत्पणि- इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह पांचवां संवरद्वार-अपरिग्रहहिय-इहि पंचहि व कारणेहि मण-वय-कायपरि- सम्यक् प्रकार से मन, वचन और फाय से परिरक्षित पाँच रक्सयहिं निन् आमरणतं च एस जोगो नेयम्यो भावना रूप कारणों से संवृत किया जाये तो सुरक्षित होता है। घितिमया मतिमया अणातवो अकलुसो अपिछदो धैर्यवान् और विवेकवान साधु को यह योग जीवन पर्यन्त पालअपरिक्सावी असंकिलिटी सो सम्बजिणमणुष्णाओ। नीय है। यह आलब को रोकने वाला, निर्मल, मिथ्याल्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिखावी, संकलशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थकरों द्वारा अनुज्ञात है। उप्पाएउ ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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