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________________ पत्र २४१-२४३ संयम में रत को सुख और अरत को दुःख [दर्शनाचार [१४५ सोन्माण मेहायि सुभासियं इम, मेधावी साधक इस सुभाषित को एवं शान-गुण से युक्त अणुसासणं नाणगुणोवषेयं । अनुशासन (शिक्षा) को सुनकर कुशील व्यक्तियों के मन मागों माग कुसीसाण जहाय सध्वं, को छोड़कर, महान् निग्रन्थ के पथ पर चले। महानियष्ठाण बए पहेणं ॥ चरित्तमायारगुणन्निए तओ, चारित्राचार और ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न निग्रंथ निराअणुप्तरं य संजमालिया। सब होता है अनुतर शुद्ध संगम तन कर वह निरासव निरासये संवियाणकम्मं , (राग-द्वेषादि बन्ध-हेतुओं से मुक्त) माधक कर्मों का क्षय कर उवेह ठाणं विउसुत्तमं धुकं ॥ विपुल उत्तम एवं पाश्वत मोक्ष को प्राप्त करता है। -उत्त, अ.२०, गा. ३६-५२ संजमरयाणं सुखं अरयाणं दुक्ख -- संयम में रत को सुख अरत को दुःख२४२. देवसोगसमाणो उ, परियाओ महासण। २४२. संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के रयाणं अरयाणं तु, महानिरयसारिसो ॥ समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते उनके लिए वही (मुनि-पर्याय) महानरक के समान दुःखद होता है। अमरोवम जाणिय सोक्खमुत्सम, संगम में रत मुनियों का सुख देवों के समान उत्तम (उत्कृष्ट) रयाण परियाए सहारपाणं । जानकार तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों की दुःख मरक निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तम, के समान उत्तम (उत्कृष्ट) जानकर पण्डित मुनि संगम में ही रमेज्ज सम्हा परियाय पंडिए । रमण करे। -दस. च. १, गा.१०-११ अथिर समस्स ठिइहेज चितण संयम में अस्थिर श्रमण की स्थिरता हेतु चिन्तन२४३. मस्त ता नेरक्यस्स जंतुणो, २४३. दुःख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन नारबुहोवणीयस्स फिलेसवत्तिणो । कीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो पलिओषम पिज्जा सागरोवमं, जाती है तो फिर वह मेरा मनोदुःख कितने काल का है ? किमंग पुन मज्म इमं मणोवुहं ।। न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई, यह मेरा दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीयों की भोगअसासया भोगधिवास जंतुणी। पिपागा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर के होते हुए न मिटी न ने सरीरेग इमेणबेस्सई, तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो अवश्य मिट ही जायगी। अविस्मई जोवियपउजवेण मे॥ जस्सेवमप्या उ हवेज निच्छिओ, जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चित होती है (दृढ़ संकल्पयुक्त चएग्ज देह न उधम्मसासगं । होती है).-"देह को त्वाय देना चाहिए पर धर्मशासन को नहीं संतारिस नो पयलेंति इंचिया, छोड़ना चाहिए"--उस दृढ़-प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियां उसी प्रकार उतवाया ५ सुदसणं गिरि ॥ विचलित नहीं कर सकती जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को। इच्चेब संपस्सिय बुद्धिम नरो, बुद्धिमान मनुष्व इस प्रकार सम्यक् आलोचना कर तथा आयं उवायं विविह वियाणिया। विविध प्रकार के लाभ और उनके मायनों को जानकार तीन काएक वाया अदु माणसेण, गुप्तियों (काय, वाणी और मन) से गुप्त होवार जिनवाणी का तिगुत्तिगुसो जिणधयणहिट्ठिजासि ॥ आश्रय ले । -दस.चू. १, मा. १५-१८
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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