SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६] चरणानुयोग संपम में अस्थिरश्रमण की स्थिरता हेतु चित्तम पूष २४३ इह खलु भो ! पब्वइएण, सप्पन्न दुक्खेणं, संजमे अरसमावन्न- मुमुक्षुओ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो प्रवजित है किन्तु उसे चिलेणं, पोहाणप्पेहिणा अणोहाइएणं वेव, हपरस्सि-गर्यमुस- मोहवश दुःख उत्पन्न हो गया, संयम में उसका चित्त अरति-युक्त पोयपढायाभूयाई इमाई अद्वारस ठाणाई सम्म संडिलेहिय- हो गया, वह संयम को छोड़ गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता भ्वाई भवति । सं जहा है, उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भलीभांति आलोचन करना चाहिए। अस्थितास्मा के लिए इनका वही स्थान है जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुण और पोन के लिए पताका का है। अठारह स्थान इस प्रकार हैं. यथा-- १.१ भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी। (१) ओह ! इस दुष्षमा (दुःख-बहुल पाँचवें आरे) में लोग बड़ी कठिनाई में जीविका चलाते हैं। २. लहस्समा इसरिया गिहोणं काममोगा । (२) गृहस्थों के काम-भोग स्वल्प-सारगहित (तुच्छ) और अल्पकालिक है। ३. भुज्जो प माइबहुला मणुस्सा । (३) मनुष्य प्रायः माया वहुल होते हैं। ४. इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ । (४) यह मेरा परीषह-जनिन दुर चिरकाल स्थायी नहीं होगा। ५. ओमजणपुरककारे। (५) गृहवासी को नीन जनों का पुरस्कार करना होता है सत्कार करना होता है। ६. वंतस्स य पखियाइयणं । (६) संयम को छोड़ घर में जाने का अर्थ है दमन को नापस पीना। ७. अहमदवासोदसंपया। (७) संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है नारकीय जीवन का अंगीकार । 1. दुल्लभे खलु भो । गिहीगं धम्मे गिहिवासमन्दों (5) ओह ! गृहबाग में रहते हुए गृहियों के लिए धर्म का बसंताणं । स्पर्श निश्चय दुर्लभ है। ६. आयके से वहाय होइ। (8) वहाँ आतंक वध के लिए होता है। १०. संकप्पे से वहाय होई ।, (१०) वहाँ संकल्प वध के लिए होता है । ११. सोवाकेसे गिहवासे । निरुवक्केसे परिवाए। (११) गृहवास क्वेश सहित है और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित । १२. बंधे गिहवासे । मोक्खे परिपाए। (१२) गृहवास बन्धन है और मुनि पर्याय मोक्ष । १३. साबजे गिहवासे । अणवज्जे परियाए । (१३) गृहवास सावध है और मुनि पर्याय अनवद्य । १४. हुसाहारणा गिहोणं कामभोगा। (१४) गृहस्थों के काम-भोग बहुजन सामान्य है-सर्व सुलभ है। १५. पत्तेयं पुष्णपावं। (१५) पुण्य और पाप अपना-अपना होता है । १६. अणिकने खलु भो ! मणुयाण जीविए कुसागजलबिदुचंचले। (१६) मोह ! मनुष्यों का जीवन अनित्य है, कुश के अग. भाग पर स्थित जल-बिन्दु के समान चंचल है। १७. यह खतु पाव कम्मं पगडं ।। (१७) ओह ! इसरो पूर्व बहुत ही मैंने पाप-कर्म किये हैं। १८. पावाणं च खलु भो! कडाण कम्मागं पुब्धि बुञ्चिग्णाणं (१८) ओह ! दुश्चरित्र और दुष्ट-पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल बुप्पडिताणं वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, सबसा में अजित किये हुए पाप-कमों को भोग लेने पर अथवा तप के वा झोसहता। द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है-उनसे छुटकारा होता है । उन्हें भोगे बिना (अथवा तप के द्वारा उनका भय किए बिना) मोक्ष नहीं होता-उनसे छुटकारा नहीं होता। अट्ठारसमं पयं मदद। -दस. चू. १, सु. यह अवारहवाँ पद है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy