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________________ सूत्र ७८४-७८५ जंघा प्रमाण-जल-पारकरग विधि चारित्राचार [५०५ से णे अवंतं परो सहसा बलसा बाहाहिं गहाय गावाती साधु के द्वारा यों कहते-कहते कोई अज्ञानी नाविक महसा उवगंसि पक्षिवेज्जा, तं णो सुमणे सिया-जाव-समाहीए। बलपूर्वक साधु को बाँह पकड़कर नौका से बाहर जल में फेंक दे ततो संजयामेव उवर्गसि पवज्जेज्जा । नो (जल में गिरा हुआ) साध मन में न हर्ष से युक्त हो-यावत् --आत्म-समाधि में स्थिर हो जाए । फिर वह यतनापूर्वक जल में प्रवेश कर जाए। से भिक्खू वा भिक्खूणी या उदगंसि पवमाणे णो हत्येण हत्थं जल में डूबते सगय माधु या साध्वी (अकाय के जीवों की पादेण पादं कारण काय आसावजा । से अणासाबए रक्षा की दृष्टि से) अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का, एक पर से अणासायमाणे ततो संजयामेव उदगंसि पवज्जेज्जा । दूसरे पैर का तथा शरीर के अन्य अंगोपांग का परस्पर स्पर्श । करे । वह (जलकायिक जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की दृष्टि से) परस्पर पर न करता हुआ इसी तरह बननापूर्वक जल में बहता हुआ चना जाए। से मिक्स्य वा भिक्खूगी वा उदगंसि पवमाणे णो उम्मुग्ग- साधु या माध्वी जल में बहते समय उन्मजन-निमज्जन णिमुग्गियं करेज्जा, मा मेयं उवर्य करणेसु वा, अच्छीसु वा. (डुबकी लगाना और बाहर निकलना) भी न करें, और न इस भक्कासि धा, मुहंसि वा परियायजेज्जा. ततो संजयामेव बात का विचार करें कि यह पानी मेरे कानों में, आँखों में, नाक उवयंसि पवेम्जा। में या मुंह में न प्रवेश कर जाए । बल्कि वह यतनापूर्वक जान में (समभाव के साथ) बहता जाए। से भिक्खू वा भिक्खूणी या उदगंसि पत्रमाणे दोलियं यदि साधु या माध्वी जल में बहते हुए दुर्वलता का अनुभव पाउणेज्जा, खिप्पामेव उवधि विगिवेग्ण पा, विसोहेज्ज वा, करे तो शीघ्र ही थोड़ी या समस्त उपधि (उपकरण) का त्याग जो चैव पं सातिज्जेज्जा। कर दे, वह शरीरादि पर से भी ममत्व छोड़ दे, उन पर किसी प्रकार की आसक्ति न रखे। अह पुणे जाणेज्जा पारए सिया उबगाओ तोरं पाउ- साधु या साध्वी जल में बहते हुए यदि यह जाने कि मैं णितए । ततो संजयामेष उदउल्लेण वा, ससणिण वा उपधि महित ही इस जल से पार होकर किनारे पर पहुंच जाऊँगा, कारण बगतीरए चिठेजा। तो जब तक शरीर से जल टपकता रहे तथा शरीर गीला रहे, तब तक वह नदी के किनारे पर ही खड़ा रहे। से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा, उदउल्लं वा, ससगिद्ध वा, साधु या माध्वी टपकते हुए या जल से भीगे हुए आरीर को कायं णो आमज्जेज्ज बा, पमज्जेज्ज वा, संलिहेज वा, एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श न करे न उसे एक या मिल्लिहेज वा. उच्वलेज्ज वा, उम्बट्ट ज्ज वा. आतावेज अधिक वार सहलाए, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस वा, पयावेज वा। पर मालिश करे और न ही उबटन की तरह शरीर से मेल उतारे । वह भीग हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक गर्म भी न करे। अह पुणेवं जाणेज्जा-विगतोदए मे काए छिण्णसिगेहे। जब वह यह जान से कि अब मेरा शरीर पूरी तरह मुख तहप्पणारं कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा-जाव-आया- गया है, उस पर बल को बूंद या जल का लेप भी नहीं रहा है, वेज वा पयावेग्ज वा । ततो संजयामेव गामाणुगामं तभी अपने हाथ से उस मूखे हुए गरीर का वर्ग करे, उसे इज्जेम्जा ।-आ० सु०२, अ०३, उ० २, मु० ४८३-४६१ सहलाए --यावत् -धूप में खड़ा रहकर उसे थोड़ा या अधिक भी तपावे । तदनन्तर संयमी साधु यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विचरण करे। जंघासंतरिम उदगपार-गमणविहि जंघाप्रमाण-जल-पारकरण विधि---- ७८५. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गामागामं तूइज्जैज्जा, अंतरा ७८५. प्रामानुग्राम विहार करते हुए माबु या साध्वी को मार्ग में
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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