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________________ २०६ चरणानुयोग नौका विहार के प्रायश्चित सूत्र से जंघासंतारिने उगे सिया से पुम्वामेव ससीसोवरियं काय पाए य मज्जेजा से पुरुषामेव एवं पादं जले किच्चा एवं पायें ले लिया ततो संजयामेव जंघासंतारिमे उदगे बहारि एक्जा से भिक्खू या भिक्खूपी या जंघासंतारिमे उनमे महारथं रोयमाणे को हाथेण त्वं वा जावयासायमा रातो संजयामेव धातारमे उपने अहारिया सेवा मी या संपासंधारिने उच्ए अहारिय माणे जो सायपडियाए णो परिवाहपडियाए महतिमहा लयंति उदगंसि कार्य विओसेज्जा । ततो संजयामेव जंघा - संतारिमेव उदए अहारियं रीएज्जा । अह पुणेवं जाणेज्जा पारए सिया उदगाओ तीरं पाउजित्तए । ततो संजयामेव उवउल्लेग वा ससणिवा काम बनतीरए चिया । सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा कार्य ससद्धि वा कार्य णो आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज या जान आयावेज्न वा एयवेज्ज वा । अह पुणेवं जाणेज्जा - विगतोदए मे काए छिष्णसिहे । तहप्पयारं कार्य आमज्जेज्न वा पमञ्जजेज्ज वा जाव - आयाdra ar यावेज वा । ततो संजयामेव गामाशुगामं ने साधु या साध्वी यह जाने कि मैं उपधि सहित ही जल से पार हो सकता है तो वह उपकरण सहित पार हो जाए। परन्तु किनारे पर आने के बाद जब तक उसके शरीर से पानी की बूंद टपकती हो, जब तक उसका शरीर जरा सा भी भीगा रहे, तब तक वह जल (नदी) के किनारे ही खड़ा रहे । साधु या साध्वी जल टपकते हुए या जल से भीगे हुए शरीर को एक बार वा बार-बार हाथ से स्पर्श न करे, न उसे एक बार या अधिक बार घिसे - पावत्-भीगे हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक न जब वह यह जान ले कि अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूंदे या जल का लेप भी नही रहा है. तभी अपने हाथ से उस शरीर का स्पर्श करे - यावत् - धूप में बड़ा रहकर उसे थोड़ा या अधिक तपावे। बाद में वह संयमी आ० ० २ ० ३ ० २ ० ४९३ ४९७ साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । नावाविहार-विसयाणोपायच्छित सुताणनौका विहार के प्रायश्चित्त सूत्र- ७६. जे भिक्खू अट्ठाए णावं दुरुह दुरुह वा साइज्जइ । जे गाने को हर वेज्जमा दुरूह्ह दुरूह वा साइज्जइ । सूत्र ७८५७८६ मिक्लू गावं पामिन् पामिय्यावेड मामिवं महद्दु देज्ज माणं दुरूह दुख् ता साइज्जइ । जंचा प्रमाण (जंघा में पार करने योग्य) जल (जलाशय या नदी) पड़ता हो तो जो पार करने के लिए पहले सिर सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैर तक प्रमार्जन करके वह एक पैर को जल में और एक पैर को स्थल में रखकर यतापूर्वक जंघा से तरणीय जल को भगवान के द्वारा कथित विधि के अनुसार पार करे । साधु या तरणीय को शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पार करते हुए हाथ से हाथ का पावत् (निशा) की) अशातना न करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित विधि के अनुसार बनापूर्वक उस जंघादरणीय जल को पार करे। साधु या साध्वी जंबा प्रमाण जल में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार चलते हुए शारीरिक सुख-शान्ति की अपेक्षा से दाह उपशान्त करने के लिए गहरे और विस्तृत जल में प्रवेश न करे और जब उसे यह अनुभव होने लगे कि मैं उपरूयादि सहित जल से पार नहीं हो सकता, तो वह उनका त्याग कर दे। उसके पश्चात् वह कानपूर्वक शास्त्रोक्त विधि से उस धान्यमाण जल को पार करे । ७६. जो भिक्षु बिना प्रयोजन नाव पर बैठता है, बैठने के लिए कहता है, बैठने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु नाम खरीदता है, खरीदता है या खरीदी हुई नाव दे तो उस पर बैठता है, बैठने के लिए कहता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु नाव उधार लेता है उधार लिवाता है या उधार ली हुई नाव दे तो उस पर बैठता है, बैठने के लिए कहता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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