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अबहुश्रुत का स्वरूप
उपधान मानाधार
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ने यो मिए था, मुम्बाई नियडी सके ।
जो चण्ड, अज्ञ, स्तब्ध, अप्रियवादी मायावी और शठ हैं, खुजाह से विणीयप्पा, कट्ठ सोयगय जहा ॥ वह भावनीतात्मा संसार स्रोत में वैसे ही प्रवाहित होता है, जैसे
-दस, अ.६, उ.२, गा.३ नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काष्ठ । चउत्थो उवहाणायारो
चतुर्थ उपधानाचार सिपखारिह
शिक्षा के योग्य१६३. वसे पुरुकुले निश्चं, जोगवं उवहाणवं ।
१६३. जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो समाधियुक्त होता पियंकरे पियंबाई, से सिमर्ष लमरिह।
है, जो उपधान (थ त-अध्ययन के समय तप) करता है, जो प्रिय -उत्त. अ. ११, गा. १४ करता है, जो श्यि बोलता है-वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। पंचमो अणिण्हवायारो
पंचम अनिन्हवाचार असाहसरूवं
असाधु का स्वरूप१६४. अहो य राओ य समुट्ठिएहि, सहागएहि पडिलरूम धर्मा। १६४. अहर्निश उत्तम अनुष्ठान में प्रवृत्त तीर्यकरों से धर्म को समाहि माघायमनोसयंता, सस्थारमेषं फरस वयंति ॥ पाकर भी समाधिमार्ग का सेवन न करते हुए जमा लि आदि
निन्हव अपने शास्ता को कठोर वचन कहते है। १ (क) आगमों के अध्ययन-काल में आयंबिल आदि तप करना उपधानाचार है। (ख) प्रत्येक आगम के अध्ययन-काल में कितना तप करना-इसका विस्तृत विवरण उपलब्ध आगमों में नहीं है, किन्तु
"योगोबहन विधि" विषयक कतिपय ग्रन्थों में उपधान तप की विधि है। उपधान परिभाषा(ग) उपसमीपे धीयते क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम् । (घ) उपधीयते उवष्टम्यते श्रुतमनेनेति उपधानम् । (च) भाचारांग श्रुत. १. अ. ६ वा "उवहाणसुयं" उपधानश्रुत नाम का अध्ययन है। इस अध्ययन में भगवान् महावीर की ___ तपोमय साधना का वर्णन है। (छ) सूत्रकृतांग श्रुत. १, अ. ११, गा. ३५ में "उपधानवीर्य" श्रमण का विशेषण है। (च) स्थानांग अ. २, उद्दे. ३, मूत्र ५४ में "उपधान-प्रतिमा" का उल्लेख है। उपधान तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा द्वादश
भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवरूपेति । (अ) स्थानांग अ. ४, उद्दे. १, सूत्र २५१ में भी "उपधान-प्रतिमा" का उल्लेख है। (ब) स्थानांग अ. ४, उद्दे. १, सूत्र २३५ में चार अन्तक्रियाओं में उपधानवान् अणगार का विशेषण है। (ट) सूत्रकृतांग शु. १, अ. २, उद्दे. गा. १५ में एक सुन्दर रूपक दिया है जिस प्रकार पक्षिणी पंख फड़फड़ाकर घूल
भाड़ देती है, उसी प्रकार श्रमण भी उपधान तप से कमरज को झाड़ देता है। (8) उपधान-महिमा--जह खलु मइलं यत्यं, सुज्झाइ उदगाएहि दबेहि । एवं भावुवाहाणेण, सुज्मए कम्ममट्ठविहं ।।
--आचारांग नियुक्ति गाभा २८३ (3) उपधान तप क सम्बन्ध में निशीथ और महानिशीथ में यत् किंचित् लिखा है किन्तु प्रतियां उपलब्ध न होने से यहां नहीं
लिखा है। (ड) श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में उपधान तप कराने की परिपाटी प्रचलित है । वे इस तप की आराधना में श्रावक
श्राविकाओं को ही अधिक से अधिक स्थान देते है। 'सप्त उपधान विधि' नामक पुस्तक में सात प्रकार के उपधान की तप विधि है । इसके प्रस्ताविक निवेदन में संपादक मुनि ने लिखा है कि.---''पूर्वस्मिन्समये उपधानतपोवाहि नामाचारादिव्यवस्था परमोत्कृष्टविधिसम्पन्ना प्रकारान्तरेण निर्धारिता चासोत, परं देशकालादिक समालोच्य करुणावरुणालपराचार्वेः
स क्रमो नितयं सुगमो भवेत्तथा पश्चात् परिवर्तितः।" (ग) उपधान तप के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थ विधिप्रपा 'आचार दिनकर' और 'समाचारीशतक' आदि में यत्र तत्र लिखा है
जिज्ञासु उन-उन ग्रन्थों का स्वाध्याय करें।