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________________ ११२ वरणानुयोग असाधु का स्वरूप भूत्र १६४-१६५ विसोहा ते अणुकाहयंते, जे आयमायण वियागरेज्जा। जो (गोष्ठामाहिल के समान') विशुद्ध मोक्ष मार्ग की परम्पअट्टाणिए होइ बहुगुणाणं, जे गाणसंकाए मुसं वएज्जा॥ रागत व्याख्या से भिन्न व्याख्या करते हैं, वे सर्बज्ञ के ज्ञान में सशंक होकर मृषा बोलते हैं, अतः उत्तम गुणों के अपाय होते हैं। जे यावि पुट्टा पलिउंचयंति आयाणमटु खसु बंचयति। जो कोई (साधक साधिका) पूछने पर अपने (गुरु का नाम) असाहणो ते इह साहुमागी, मायग्णि एससि अपतघातं ॥ छिपाते हैं, वे लेने लायक मोक्ष अर्थ से अपने को वंचित करते -सूय. सु. १, अ. १३, गा.२-४ हैं। वे असाधु होते हुए अपने को साधु मानने वाले माया (कपट) से युक्त हो अनन्तकालिक घात (नरक) को प्राप्त होंगे। छठो वंजणणाणायारों' सत्तमो अट्ठणाणा- छठा व्यंजन-ज्ञानाचार, सातवां अर्थ-ज्ञानायारों' अट्ठमो तदुभयणाणायारो" चार, आठवां तदुभय-ज्ञानाचार सुप्तत्थस्स अणिण्हवणं सूत्रार्थ का न छिपाना१६५. अजूसए गो पच्छभमासो, णो सुत्तमस्य च करेज्ज ताई। १६५. सर्व प्राणियों का प्राता श्रमण आगम के अर्थ को न सत्यारभत्ती अवीव वाय, सुयं च सम्म पडियाययंसि ॥ छिपावे, न दुषित करे सूत्रार्थ का अन्यथा उच्चारण न करे तथा -सूम. सु. १, अ. १४, गा. २६, (६०५) शास्ता की भक्ति का ध्यान रखते हुए प्रत्येक बात विचार कर कहे और गुरु से सूत्रार्थ की जैसी व्याख्या सुनी है वैसी ही अन्य को कहे। ** १ भगवान् महावीर के शासनकात में सात प्रवचन निन्हव हुए हैं, उनका संक्षिप्त वर्णन स्थानांग अ. ७, सूत्र ५८७ में है। (क) जो अर्थ को व्यक्त करे वह व्यन्जन है, व्यन्जनों से मूत्र की रचना होती हैं, अतः व्यन्जन सूत्र को कहते हैं । "वजणमिति भण्णत्ते सुसं"-निशीथचूर्गी पीठिका पृष्ठ १२ गाथा १७, सूत्र के अक्षरों का शुद्ध उच्चारण करना व्यन्जनाचार है। (ख) सूत्र के अशुरचारण से अर्थ-भेद होता है, अर्थ-भेद से प्रिया भेद तथा क्रिया-भेद से निर्जरा नहीं होती है और निर्जरा न होने से मोक्ष नहीं होता है, अतः सूत्रों का शुद्ध उच्चारण करना आवश्यक है । (ग) सूत्रकृतांग श्रुत. १, अ.१४, गा. २७ में "सुद्ध सुत्ने" सूत्र का शुद्ध उच्चारण भावसमाधि का हेतु माना है। (घ) शुद्ध उच्चारण के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है तथा भाषा समिति का विवेक आवश्यक है, अतः एतद् विषयक विस्तृत विवरण भाषा समिति विभाग में देखें। ३ सूत्र का सत्य अर्थ करना अर्थाचार है। ४ सूत्र और अर्थ का शुद्ध उच्चारण करना और सम्यका अर्थ समझना तदुभयाचार है । ५ अदूसए-अपसिद्धान्तव्याख्यायन सर्वज्ञोक्तमागर्म न दूषयेत् । ६ ताई-संसारात् वायी-वाणशीलो जन्तुनाम् ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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