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________________ सूत्र १२७ बस दोष ग्रहणवणा के चारित्रधार : एषणा समिति [५६७ ५. जे भिक्खू वणीमग-पर मुजद, मुंजत वा साहज्जइ। ६. जे मिश्णू तिपिच्छा-पिङ भुजइ, मुंजेत वा साइज्जइ । ७. जे मिक्खू कोह-पिडं झुंजद, मुंजत वा साहज्जा। ८. मे भिक्खू माण-पिड मुंजइ, भुंजतं वा साइज्जइ । १. जे भिक्खु माया-पिट भुजह, मुंजत वा साइज्जइ । १०. जे भिक्खू लोभ-पिर मुंजइ, भजत वा साइज्जह । ११. जे भिक्खू विज्जा-पिर भुजइ, मुंजत वा साइजइ । (५) जो भिक्षु भिखारी के निमित निकाला हुआ आहार भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (६) जो भिक्षु निकित्सा रिड भोगता है, भोगवाता है. भोगने वाले का सनुमोदन करता है। (७) जो भिक्षु कोपपिड भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (E) जो भिक्षु मानपिंड भोगता है, भोगवाता है, भोगने बाले का अनुमोदन करता है। (8) जो भिक्षु मायापिंड भोगता है भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। १०) जो भिक्षु लोभपिंड भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (११) जो भिक्षु विद्यापिड भोगता है, भोगनाता है, भोगने वाने का अनुमोदन करता है। (१२) जो भिक्ष मन्त्रपिंड मोगता है, भोगदाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (१३) जो भिक्षु चूर्णपिंड भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (१४) जो भिक्षु योगपिंड भोगता हैं, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। (१५) जो भिक्षु अंतर्धानपिंड (अदृष्ट रहकर ग्रहण किया हुआ आहार को) भोगता है, भोगवाता है, भोगने वाले का अनुमोदन करता है। उसे उद्घातिक पातुसिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। १२. जे मिक्खू मंत-पिउं भुजइ, भुजंतं वा साइजइ । १३. जे भिक्खू खुण्णय-पिडं भंजइ, भुंजतं या साइजमा । १४. जे भिक्खू जोग-पिट भुजद, भुजस वा साइज्मा १५ जे भिक्खू अंताग-पिङ भुजइ, भुजत वा साइजह। त सेवमाणे आवजह घाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्याइय। --नि. उ. १३, सु. ६४-७% एषणा दोष-६ [ प्राक्कथन ] बस दोष ग्रहणषणा केसंकियमक्खिय. णिक्वित्त, पिहिय, साहरिय दायगुम्भीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय, एषण दोसा दस हवंति ।। -~-पिण्डनियुक्ति गा. ५२० (१) शंकित - किसी एक उद्गम आदि दोष की आशंक होने पर भी आहारादि लेना, (२) प्रक्षित-किसी मचित्त पदार्थ से आहारादि का स्पर्श होते हुए भी ले लेना। (३) निक्षिप्त --किसी सचित्त पदार्थ पर रखा हुआ आहारादि लेना। (४) पिहित-किसी सचित्त पदार्थ युक्त पात्र आदि से ढके हुए आहारादि लेना। (५) संहत---जिस पाव आदि में सचित्त पदार्थ रखे हुए हों उन्हें वाली करके उसी पात्र आदि से आहारादि देने पर लेना।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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