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________________ ७२२] धरणानुयोग उद्देशिक आदि स्थग्लि में मल-मूत्रारि के परटने का निषेध सूत्र २६६-३०१ सरीरगं के वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छेज्जा एगते बहुफासुए मृत भिक्षु के शरीर को कोई वयात्त्य करने वाला साधु एकान्त पएसे परिदृवेत्तए। में सर्वथा अचित्त प्रदेश में परठना चाहे उत समयअस्थि य इत्य केइ सायारियसं तिए उवगरपजाए अचित्ते यदि वहाँ उपयोग में माने योग्य गृहस्ट का कोई अचित्त परिहरणारिहे कप्पह से सांगारकर्ड गहाय तं सरीरग एगते उपकरण (वहन योग्य काष्ठ) हो तो उसे पुनः लौटाने का कहकर बलफासुए पएसे परिवेत्ता तत्येय उवनिक्विवियच्ये सिया । ग्रहण करे और उससे उस मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त और - कप्प. उ. ४, सु. २६ सर्वथा अचित प्रदेश पर परठ कर उस वहन-काष्ठ को यथास्थान रख देना चाहिए। गामाणुगामं चूइज्जमाणे भिक्खू व आहन्त्र वीसुभेज्जा, तं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ भिक्षु यदि अस्मान मार्ग में स सरीरंग केह साहम्मिए पासेज्जा, कप्पद से तं सरीरगं ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए और उगके शरीर को कोई श्रमण देखें ''मा सागारिय" ति कटु एगते चित्ते बडफासुए पंडिल्ले और यह जान ले कि यहां कोई गृहस्थ नहीं है तो उस मृत धमण पहिलहिता यमज्जित्ता परिवेत्तए । के शरीर को एकान्त निर्जीव भूमि में प्रतिलेखन व प्रमार्जन करके परठना कल्पता है। अत्यि य इत्य फेह साहम्मिय संतिए उचारणाए परिहर- यदि उस गृत श्रमण के कोई उपकरण उपयोग में लेने योग्य गारिहे कप्पइ से सागारकड गहाय वोच्चपि ओगमहं अपन• हों तो उन्हें नागार कृत ग्रहण कर पुन: आचार्यादि की आज्ञा बेत्ता परिहार परिरित्तए । -बव. उ. ७. सु. २१ लेकर उपयोग में लेना कल्पता है। परिष्ठापना का निषेध-२ उद्देसियाई डिले उच्चाराईणं परिट्रवण-णिसेहो- उद्देशिक आदि स्थंडिल में मल-मूत्रादि के पठने का निषेध३००. से भिक्ख वा मिक्खूणी वा से ज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा ३००. भिक्षु या निक्षुणी यदि इस प्रकार का स्थण्डिल जाने कि अस्सिपड़ियाए किसी गृहस्थ ने अपने लिये न बनाकरएग साहम्मियं समुहिस्स एक साधगिक साधु के लिए, बहवे साहम्मिया समुदिस्स बहुत से मार्मिक साधओं के लिए, एग साहम्मिणि समृद्दिस्स, एक नामिणी साध्वी के लिए बहवे साहम्मिणोओ समुद्दिस्त बहुत सी साधर्मिणो साध्वियों के लिए तथा बहवे समण, माहण, अतिहि, किवण, वणीमगे पणिय बहुत से धमण, ब्राह्मण, अतिथि, वरिद्री या भिखारियों को पगणिय समुहिस्स पाणाई-जाव-ससाई समारल्म समुहिस्स गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से प्राणी-यावत् सत्वों का समा-जाव-एइ, रम्भ करके स्वंडिल बनाया है यावत्-देता है. तहप्पगारं पंडिलं पुरिमंतरकष्टं बा, अपुरिसंतरा वा जाव वह पुरुषान्तरकुत हो या पुरुषान्तरवृत्त न हो-यावत् - उस गो उच्चार-पासवणं बोसि रेज्जा। स्थाण्डिल भूमि में मल-मूत्र विसर्जन न करे । -आ.सु.२, अ. १०, मु. ६४८ परिकम्म कए थंडिले उपचाराईणं परिट्रवणणिसेहो- परिकर्म किये हुए स्थंडिल में मल-मुत्रादि के परठने का निषेध३०१. से भिक्खू बा, भिक्खूणी वा से जं पुण पंडिलं जाणेजा- ३०१. भिक्षु या भिक्षुण इस प्रकार का स्वरिङल जाने कि गृहस्थ अस्सिपंछियाए कीयं वा, कारियं वा, पामिच्चिया, छन्नं ने साधु के लिये खरीदा है, बनवाया है, उधार लिया है, उस पर
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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