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________________ मष २६२-२६४ मोहमूढ़ को बोधवान पर्शनाधार १५ २६२. दसविधे मिच्छत्ते पण्णत्ते, नहा २६२. मिथ्यात्व दश प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अधम्मै घम्मसण्णा, (१) अधर्म को धर्म मानना, २. धम्मे अधम्मसग्णा, (२) धर्म को अधर्म मानना, ३. उम्मग्ये मागसपणा, (३) उन्मार्ग को सुमागं मानना, ४. मग्मे उमागमण्णा, (४) सुमार्ग को उन्मागं मानना, ५. अजीषेसु जीवसष्णा, (५) अजीवों को जीव मानना, ६. जीवेसु अजीवसपणा, (६) जीवों को अजीव मानना, ७. असाहुमु साहसग्गा, (७) असाधुओं को साधु मानना, ८. साइमु असाइसण्णा, (८) साधुओं को असाधु मानना, ६. अमुत्तंसु मुत्तसप्णा, (६) अमुक्तों को मुक्त मानना, १०. मुत्तेसु अमुत्तसपणा। --ठाणं. अ. १०, सु. ७३४ (१०) मुक्तों को अमुक्त मानना। मोहमूढस्स बोहप्पदाणं मोहमूढ़ को बोधदान२६३. अवक्खुव दमवाहितं, सद्दहमु अक्खुबंसगा। २६३. अदृष्टवत् (अन्धतुल्य) पुरुष ! प्रत्यक्षदर्शी (सर्वज्ञ) द्वारा हंदि हु मुनिस्वसणे, मोहणिज्जे कोण कम्मुगा। कथित दर्शन (सिद्धान्त) में श्रद्धा करो। हे असर्वशदर्शन पुरुषो! स्वयंकृत मोहनीय कर्म से जिसको दृष्टि अवरुद्ध हो गई है, वह सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त को नहीं मानता) यह समझ लो । दुक्षी मोहे पुणो पुणो, निविदेज्ज सिलोप-पूपणं । दुःखी जीव पुनः पुनः मोह --विवेक मूढ़ता को प्राप्त करता है। ९ सोहसे हि पासए, आपलं पाहिं संजते ॥ (अत.) अपनी स्तुति और पूजा से साधु को विरक्त रहना चाहिए। -सूय. सु. १.अ. २. उ. ३, मा. ११-१२ इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र-सम्पन्न संयमी साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य देख्ने । मोहमूढस्स दुइसा मोहमूढ़ की दुर्दशा२६४. पासह एगेऽवसीयमाणे अगत्तपणे । २६४. उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं, इसलिए विषाद पाते हैं। से बमि-से जहावि कुम्मे हरए रिणिविटुषिसे मैं कहता हूँ जैसे एक कछुआ है, उसका चित्त महाहृद में पच्छपणपलासे, उम्ममुग ने गो लभति । लगा हुआ है । वह सरोवर शैवाल और कमल के पत्तों से उका हुआ है। वह कछुआ उन्मुक्त आकापा को देखने के लिए छिद्र को भी नहीं पा रहा है। मंजगा इव संनिवेसं नो चयति । जैसे वृक्ष (विविध शीत-तापादि सहते हुए भी) अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग हैं (जो अनेक सांसारिक कष्ट पाते हुए भी गृहवास को नहीं छोड़ते)। एवं पेगे अपनवेहि कुलेहि आता इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक प्रकार के कुलों में स्वेहि सत्ता कलुणं थणंति, जन्म लेते हैं, किन्तु रूपादि विषयों में आसत्ता होकर करुण विताप णिदाणतो ते ण लमंति मोक्षं ॥१७॥ करते हैं, ऐसे व्यक्ति दुःखों के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते। मह पास तेहि कुमेहिं आयत्ताए जाया अच्छा तू देख वे उन कुलों में आत्मत्व (अपने-अपने कृत कमों के फलों को भोगने) के लिए निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैंगंडी अदुवा कोटी रायंसी अवमारियं । (१) गण्डमाला, (२) कोढ़, (३) राजयक्ष्मा, (४) अपस्मार कागि मिमियं चेव फुणितं खुज्जित तहा ॥ (मृगी या मूर्छ), (५) कागत्व, (६) जड़ता, (७) कुणिस्व,
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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