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________________ सूत्र ६८२-६८४ राणिगोवा रागशमन के उपाय ६८२. समाए हाए परिस्वयंतो सिया मणो निस्सरई महिद्धा । ६८२. समदृष्टिपूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन ( संयम से बाहर निकला तो यह विचार करे कि "वह मेरी नहीं है - दस अ २ गा. ४ और न में ही उसका हूं।" मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषयराग को दूर करे | सानो अहं पिएम अमित वासपरिमापासबा पाणिणो६०३. ए० दीसन्ती बहने लोए पासवा सरीरिणो । सुक्कपासो लम्भूओ कहं तं विहरसी मुणी ॥ उसे पा सभ्यतामा दुरुपासो सो बिरामी १०- पासा इइ के बुता केसी के सिमेवं बुवतं तु गोयमो ४० रागशमन के उपाय - गोयमम्वी । इणवी ॥ साओ लिया मेवासा भयंकरा विहरामि मह्नकर्म ॥ उत्त. अ. २३, गा. ४०-४३ से छिम्बितु जहानायं इति संका के गीतबादी ? के भाषावादी? मंसिया एगे गिक्से ? सम्हा पहिले पो हरिणे, गोकु तेहि जान पडिले सात समिते एयरणुपस्सी तं जहा अंध बहिर रुसं काम सम समलतं । से अबुझमाणे हतो बहते जाती- मरणं सह पमादेर्ण अगवाओ जोणीओ संघेति विरुबकने फासे परिसंवेदयति । चारित्राचार [४४५ परियमाणे । - मा. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७५-७६ आभ्यन्तर परिग्रह के पाश से बद्ध प्राणी ६८३. प्र० - इस संसार में बहुत से शरीरधारी जीव (मोह के अनेक) पाशों से बद्ध हैं। मुने! तुम बन्धन से और लघभूत (बन्ध रहित हल्के होकर कैसे विचरण करते हो ?" उ०- "मुने ! मैं उन बन्धनों को सब प्रकार से काटकर, उपायों से विनष्ट कर, बन्धन-मुक्त बोर हल्का होकर विचरण करता हूँ ।" — अमित परिहरिओडिओ आभ्यन्तर परिग्रह से विरत पण्डित ४ए अहं जीवन भी होगे, जो अति ६०४. वह पुरुष (आत्मा) अनेक बार उच्च गोत्र और अनेक वार रिते । जो पोहए। नीच दोष को प्राप्त हो चुका है। इसलिए यहाँ न तो कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त विशेष उपच) है। यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे | यह (उक्त तथ्य को ) जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा ? कौन मानभावी होगा ? और कौन किस एक क्षेत्र (स्थान) में आसक्त होगा ? इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित म हो और नीच गोत्र प्राप्त होने पर कृषित (दुखी) न हो। प्रत्येक जीव को खत्रिय है यह तु देख इस पर सूक्ष्मता पूर्वक विचार कर जो समित (सम्बष्टिसम्पन) है वह इस जीवों के इष्ट-अनिष्ट कर्मशिक) को देता है। जैसे T ग्र उदम से है। से पूछा । केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा 14 कैसी ने गौतम उ०- "तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह भयंकर बन्धन है । उन्हें काटकर धर्मनीति एवं आचार के अनुसार मैं विचरण करता हूँ ।" अापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, लूला संपड़ापन, कुबड़ापन, बोनापन, कालापन, चित्तक— बहरापन (कुष्ट आदि चर्मरोग आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद (कर्म) के कारण ही नाना प्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों-दुःखों वेदनामों का अनुभव करता है । वह प्रमादी पुरुष कर्म सिद्धान्त को नहीं समझता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत ( पुनः पुनः पीड़ित ) होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में बार-बार भटकता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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