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घरमानुयोग
परिमहविरत पापकर्मविरत होता है
सूत्र ६८५-६८५
परिगहविरओ पावकम्माविरओ होइ
परिग्रहविरत पापकर्मविरत होता है६८५. से मिक्खू जे इमे काममोगा सवित्ता वा अचित्ता वा ते णो ६८५. जो ये मचिप्स मा अनित्त काम-भोग (के साधन) है, वह
सयं परिगिहति, नेवणे परिगिहावेति, अण्णं परिमिहतं भिक्षु स्वयं उनका परिग्रह नहीं करता, न दूसरों से परिग्रह पिम समभुजाणड, इति से महमा भादाणातो उपसंते उब- कराता है, और न ही परिग्रह करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन द्वित्त पडिविरते।
करता है । इस कारण से वह मिक्ष महान् कौ के आदान (ग्रहण -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६८५ या बन्ध) से मुक्त हो जाता है. शुद्ध संयम पालन में उपस्थित
होता है, और पापकर्मों से विरत हो जाता है। गोला रूवर्ग
गोलों का रूपक-- ६८१. अल्लो सुक्को य वो छुटा, गोलण मट्टिपामा । ६८६. "एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके वो वि आवजिया कुइरे जो उल्लो सोस्य लगई। गये। वे दोनों दीवार पर गिरे । जो गीला था, वह वहीं विपक
गया।" एवं सम्पन्ति दुम्मेहा, जे मरा कामलालसा। ___ "इसी प्रकार जो मनुष्य दुबुद्धि और काम-भोगों में आसक्त विरत्ता उ म समान्स, जहा सु+को उ गोलबए ॥ है, विषयों में चिपक जाते हैं। विरत साधक सूखे गोले की
-उत्त. अ. २५, गा. ४०-४१ भांति नहीं लगते हैं।" भोगनियट्टी कुज्जा -
भोगों से निवृत्त हो५७. अधुवं जीवियं मचा सिबिमग वियाणिया । ६८७. मुमुक्षु जीवन को अनित्य और अपनी आयु को परिमित विणिपट्टज भोगेसु, आउँ परिमिषमप्पणी ।। जान तथा सिद्धि मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर भोगों से निवस बने ।
-स. अ.८, गा. ३४ मगुण्णामणुम्णेसु काम-भोगेसुराग-दोस णिमहो कायव्वो- मनोज्ञ और अमनोज्ञ कामभोगों में राग-द्वेष का निग्रह
करना चाहिए६८०, जे विष्णवणाहिज्मोसिपा, संतिपणेहि समं विवाहिया। ६८, जो साधक स्त्रियों से आसक्त नहीं हैं, वे मुक्त (संसारतम्हा उडतं ति पासहा, अवस्खू कामाई रोगवं५ सागर) सन्तीर्ण के गमान कहे गये हैं। इसलिए तुम ऊर्ध्व (मोक्ष)
की ओर देखो और काम-भोगों को रोगवत् देखो।। अग्गं वगिएहि आहियं,
से इस लोक में बणिकों-व्यापारियों द्वारा साये हुए उत्तमोधारती राईणिया इई।
तम सामान (रल आभूषण आदि) को राजा-महाराजा आदि एवं परमा महापया,
सेते हैं, या खरीदते हैं, इसी प्रकार भाषायों द्वारा प्रतिपादित मक्खाया सराइमोमणा ॥ रात्रिभोजनत्याग सहित पांच परम महाव्रतों को कामविता
श्रमण प्रहण धारण करते हैं। *ह सापाणुमा गरा,
इस लोक में जो मनुष्य (सुख के पीछे दौड़ते हैं) के, अत्याअग्नीववना कामैसु मुछिया । सक्त हैं और काम-भोगों में मूच्छित हैं, वे कृपण (इन्द्रियविषयों किवण समं प्रगग्निया,
के लालची) के समान काम-सेवन में धृष्ट बने रहते हैं। वे न वि जाति समाहिमाहियं ।। (महाबीर द्वारा कथित) समाधि को नहीं समझते। बाहेग जहा ब.. विस्छते.
__ जैसे गाड़ीवान के द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ अबले होड गवं पचोदए। बैल कमजोर हो जाता है, अतः वह विषम-कठिन मार्ग में पस से येतसो अप्परामए,
नहीं सकता, आखिरकार वह अल्प सामर्थ्य वाला दुल वैल) सातिमहति अवले विसीयति ॥
भार वहन नहीं कर सकता, अपितु कीचड़ आदि में फंसकर क्लेश पाता है।
६८.८ विश्वाति यसिया, संविध्यूहि नाम विरहित