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सूत्र ७
महाबीर वजन सूत्र
मंगल सूत्र
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कह च नाणं कह सण से, सील कहं नाय-सुयस असा । जिउ- सामान और शील-आचार जाणासि गं भिक्षु । जहातहेणं, अहासुयं हि महा गिसतं ॥ क्या है ? ग्रह आप जानते हैं इसलिए यथावत, यथा अवधारित
जो हो वह यथातथ्य कहें । खेयनए से फुसले महेसी, अणतनाणी य अगंतवंसी। वे महषि खेदज्ञ प्राणियों के खेद-दुःख के ज्ञाता, कुमालजससिणो चपखुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिहं च पेहि ।। कर्म रूप कुश के लुनने-छेदने में निपुण, आशुप्रश, अनन्तज्ञानी,
अनन्तदर्शी (अतीत में) चक्षुपथ में स्थित थे, है जिज्ञासु ! उनके
धर्म को जानो और उनके धैर्य को देखो। उलं आहे यं तिरिय दिसास, तसा यथावर जे य पाणा।
ऊर्ध्व अधो और तिर्यक दिशाओं में स्थित जो प्राणी हैं
अभी और निर्यक दिशाओं में घिर : से णिच्च-णिचहि समिक्खपन्ने, दीये व धम्म समियं उबाहु ।। उन्हें नित्यानित्य व्याथिक और पर्यायाथिक नय से सम्यक
प्रकार देखकर उस प्राज्ञ ने समभाव से द्वीप समान आधारभूत
धर्म कहा है। से सवसी अभिभूयनाणी, निरामर्गधे धिइम ठियप्पा। वे सर्वदर्शी महावीर अभिभूतज्ञानी- अन्य जानियों से अगुतरे सव-जगंसि विज्ज, गंथा अतीते अभए अपाऊ॥ अधिक ज्ञानी, निरामगन्ध-निर्दोष चारित्न बाले, धैर्यवान्,
स्थितात्मा, इस जगत् में अनुत्तर प्रधान विद्वान, निर्गन्ध
अनायु-आवुफर्म के बन्ध्र से रहित थे । से भूइपण्णे अणिएअचारी, ओहतरे धीरे अणंत-चक्खू । वे महावीर भूतिप्रज्ञ-सर्वज्ञ, अनियतचारी-स्वेच्छाविहारी, अण तरे तप्पह मूरिए वा, वइरोणिदे ब तमं पगासे ॥ औषंतर-संसार समुद्र से उत्तीर्ण, सर्वदर्शी, सूर्यसम सर्वाधिक
तेजस्वी, वेरोचनेन्द्र-अग्निसम अन्धकार का नाश करने वाले थे। अणुत्तरं धम्ममिणं जिणागं, नेया मुणो कासव आसुपन्ने। जिस प्रकार स्वर्ग में महानुभाव इन्द्र सहस्र देव समूह का इंचे व देयाण महाणुमावे, सहस्सनेता दिवि णं विसिठे। विशिष्ट नेता है, उसी प्रकार आशुप्रज्ञ काश्यप गोती भगवान
महावीर ऋषभादि प्रज्ञप्त इस अनुत्तर धर्म के नेता थे । से पन्नया अक्खय-सायरे वा, महोबही वा वि अणंतपारे । वे महावीर सागर सम अक्षय, महोदधि सम अपार प्रज्ञा अणाइले वा अफसाइ मुक्के, सक्के 4 वेवाहिवई जुइमं ॥ वाले थे। वे अकुटिल, अकषाय, मुक्त और देवाधिपति सम
द्युतिमान थे। मे वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुसणे था नग-सब्व-सेठे। वे महावीर बीर्य-शक्ति से प्रतिपूर्ण वीर्य, सर्वपर्बत श्रेष्ठ मुरालए बासि-मुदागरे से, विरायए अंग-गुगोववेए। मेरु सम सुदर्शन सूरालयवासियों के मोदवर्धक और भनेक गुण
युक्त विराजमान थे। सयं सहस्साण उ जोयणाणं, सिकंञ्चगे पंडग-वेजयते । वह मेरु तीन काण्ड एवं पाण्डुक बनला वैजयन्ती-युतं सौ से जोयणे णबणबए सहस्से, उखुस्सितो हेट्ठ सहस्समेगं ॥ हजार (एक लाख) योजन का है । निन्यानवें हजार योजन भूमि
से ऊँचा है और एक हजार योजन भूमि में नीचे है। पुळे नभे चिट्ठई भूमि-बठिए, जं सूरिया अणुपरिबट्टयति । बह नन्दन वन पुत हेमवर्ण मेरू भू-पर स्थित होते हुए भी से हेमवन्ने बहनंदणे य, जंमी रति वेबयंती महिमा । नभ का स्पर्श करता है। सूर्य उसकी परिक्रमा करते हैं और
महेन्द्र उस पर बैठकर आनन्द का अनुभव करते हैं। से पव्वए सद्ध-महप्पगासे, विरायती कंचण-मट्ठ-वणे । वह मेरु पर्वतों में श्रेष्ठ, प्रधान दुर्गम पर्वत है तथा वह अजुत्तरे गिरिसुथ पन्ध-धुग्गे, गिरीयरे से जलिए व भोमे ॥ पृथ्वी पर दैदीप्यमान मणि एवं स्वर्णसम द्युतिमान शुद्ध वर्ण
वाला अनेक नामों से प्रसिद्ध है । महोइ ममि ठिए गिदे, पनायते सूरिय-मुख-लेसे । वह नगेन्द्र विविध वर्णों से सुशोभित सूर्य सम शुद्ध मनोहर एवं सिरीए उस भूरि-वन्ने, मणोरमे जोयह अश्चिमाली॥ कान्तियुक्त सर्व दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ पृथ्वी के
मध्य भाग में स्थित है।