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________________ ४] चरणानुयोग महावीर वन्दन सूत्र वंदे गुणिनच । वंदामि रिहनम पासं तह यद्धमाणं च ॥ एवं माहिय-रममला, महोग-वर-मरणा जिवरा, तिथयरा मे पीयं ॥ किलिय बंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आम्वोहिलाभ समाहिवर दितुं । निलय आइबेनु अहिय बासवरा सागर-बर-गंबोरा सा सिद्धिवितु ॥ - आव. अ. रे, सु. ३-६ महावीरबंदणं सुतानि - ६. । जय जय जीव-बोणी, विवान जग जगामंदी जगनाही जगबंधू जय जगपिधानही भययं ॥ जयइ सुआण पभवो, तित्यथराणं अपच्छिमो जय जयs गुरु लोगाणं, जयह महत्या महावीरो ॥ म सोमरस भजियरस वीरम्स । भवं बुरासुरनमंसिर, मधुमका-रस ॥ - नं. थ. ग्रा. १-३ वयगय जर मरण भए, सिद्धं अभिवंदिकण निविहेणं । दामि जिनवरिद, तेलोषक-गुरु महावीर ॥ - पण्ण. पद. १, या. १ योरवरस्थ भगवओ अरमरण-किसोरहिस। ददामि विजयपणओ सोक्खुप्पाए सया पाए ॥ १ ॥ - सूर. पा. २०, सु. १०७, गा. ६ जयद णवणलि कुवलय वियसियस्य वत्तपत्तलदलच्छी । वीरो गमंदमय गलसल लिय गय विक्कमो भयवं ॥ — चंद. ग्रा. १ सिरि बीरस्युई ७. पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, अगारिणो या पर-तित्थिया य । से केंद्र णेगतहियं धम्ममाहू, अर्जेलिस साहु-समिबखयाए ॥ सूत्र ६ " श्रीनाथ अनाथ भगती मी मुनिसुव्रत एवं राग द्वेष के विजेता नमिनाथ जी को वन्दन करता है। इसी प्रकार अरिष्टनेमि पावंताथ मन्त्रिम तीर्थकर यर्द्धमान ( महावीर ) स्वामी को नमस्कार करता हूँ । जिनकी मैंने इस प्रकार स्तुति की है, जो कर्मरूप ल तथा मल से रहित हैं, जो जरा-मरण दोषों से सर्वथा मुक्त हैं, मे अन्तशुओं पर विजय पाने वाले धर्ती तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों । जिनकी (इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने कीति की है, वन्दना की है, भाव से पूजा की है, और जो अखिल संसार में सबसे उत्तम हैं, वे सिद्ध तीर्थकर भगवान मुझे आरोग्य अर्थात् आरमा बोधि सम्मानिय का पूर्ण लाभ तथा उत्तम समाधि प्रदान करें । जो जो अनेक कोटा-कोटि चन्द्रमाओं से भी विशेष निर्माण है. से भी अधिक प्रकाशमान है, जो महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं, वे (तीर्थंकर) सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि प्रदान करें, अर्थात् उनके आलम्बन से मुझे सिद्धि-मोक्ष प्राप्त हो । महावीर वन्दन सूत्र ६. जगत् की जीव योनियों के शाता जगद्गुरु जगदानन्द जगद्बन्धु जगनाय जगत् पितामह भगवान जयवन्त हैं । श्रत के उत्पत्ति स्थान, लोक के गुरु, अन्तिम तीर्थंकर महात्मा महावीर जयवन्त हैं । कर्मरज रहित, सुरासुर अभिवन्दित सर्वजगद्योतक वीर जिन कल्याणकारी हों । जन्म, जरा, मरण के भय से रहित सिद्धों को वन्दना करके त्रैलोक्य गुरु जिनेन्द्र भगवान महावीर की वन्दना करता हूँ । जरा, मरण, वेग, द्वेष रहित वीरवर भगवान महावीर के सदा सुखदायी पैरों में विनयपूर्वक नमकर उन्हें वन्दना करता हूँ। नवीन विकसे हुए मलिन नीलोत्पल, सौ पांखडीवाले कमल समान दीर्घ मनोहर नेत्रों वाले और अपनी लीला सहित जाता हुआ गजेन्द्र समान गति वाले श्रमण भगवान महावीर रानादि शत्रुओं को निविघ्न जोतते है। श्री वीर स्तुति ७. श्रमण- माहण, गृहस्थ और अन्य संधानुयायियों ने पूछा कि जिस साधु समीक्षापूर्वक अन्य धर्मो से धर्म कहा है, वह कौन हैं ? हितकारी
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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