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________________ ६) चरणानुयोग महापौर वन्दन पत्र सूत्र ७ सुवस्सस्सेव असो गिरिस्स, पच्चन महतो पस्चयस्स। यह महापर्वत सुदर्शन गिरि का यश कहा है। ज्ञातपुत्र एतोबमे समणे नाय-पुत्ते, जाई-जसो-दसण-नाण-सीले ॥ भगवान महावीर थमण के ज्ञान, दर्शन, पील, जाति और यश को इस (मरु) की उपमा दी जाती है। गिरीबरे वा निसहाययाणं, रुपए व सेठे बलयायताणं । आयत गिरिवरों में जैसे नियधगिरि और वर्तुल पर्वतों में तोवमे से जग-भूइ-पन्ने, मुणीण मज्ने तमुवाह पन्ने ॥ जैसे रुचक पर्वत श्रेष्ठ हैं वैसे ही श्रेष्ठ प्रज्ञ भ० महावीर मुनियों के मध्य में श्रेष्ठ हैं। अणुत्तर धम्ममुईरइत्ता, अणुसरं माणथर मियाई। भ० महावीर सर्वोत्तम धर्म कहकर शंख, इन्दु और निर्दोष सुसुक्कसुक्के अपगंड-सुक्क, संखेंतु-एगंतववात-सुवकं ॥ शुक्ल वस्तु के समान सर्वोत्तम शुरल ध्यान करते थे। अगुत्तरगं परमं महेसी, असेस-कम्मं स विसोहाइस्ता। महर्षि महावीर ज्ञान दर्शन और शील से अशेष कमों का सिद्धिगते साइमणतपसे, नाणेण सीलेण य बसणेण ॥ शोधन करके सर्वोत्तम सादि अनन्त सिद्धि गति को प्राप्त हुए हैं। सखेमू गाए जह सामली वा, अंसो रति वेदयंति मुवन्ना। जिस प्रकार वृक्षों में सुपर्ण देवों का बीड़ा स्थल शाल्मली वणेसु वा नंदणमा सेट्ट, नाणेण सीलेण य भूइपन्न ॥ वृक्ष और वनों में नन्दन वन श्रेष्ठ है। उसी प्रकार ज्ञान और भील में श्रेष्ठ प्रज्ञ भ० महावीर श्रेष्ठ हैं। भणिय य सददाण अगत्तरे उ, चंदो व ताराग महाणुनाव। शब्दों में मेघगर्जन, साराओं में महानुभाव चन्द्र और गन्ध गंधेनु वा चंदणमाह सेठें, एवं मुणीर्ण अपरिशमाह ॥ पदार्थों में चन्दन के समान अप्रतिज्ञ-कामना रहित भ. महावीर श्रेष्ठ माने गये हैं। जहा सर्व उदहोणसेठे, नागेनु वा धरणिदमाहु सेठे। समृद्रों में स्वयं भरमण, नागकुमारों में धरणेन्द्र और रसों खोओदए वा रस-वेजयंते, तयोवहाणे मुणि बेजयते ॥ में इक्षरस के समान तपस्वियों में उपधान तपःप्रधान भ० महावीर हैं। हत्थीसु एरावणमाह जाए, सीहो मियाणं सलिलाण गंगा। हाथियों में एरावण, ममों में सिंह, नदियों में गंगा और पक्षीसु वा गरुले वेणुदेवे, निवाणवादीमिह नाय पुत्तं ॥ पक्षियों में वेणुदेव गरुड़ के समान निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र भगवान महावीर हैं। जोहेसु णाए जह बोससेणे, पुष्भु चा जह अरविंदमाहु । योद्धानों में विश्वसेन, पुष्पों में अरविन्द और क्षत्रियों में खत्तीण सेठे जह बत-वक्के, इसोण सेठे तह बलमाणे ॥ दन्तवक के समान ऋषियों में वर्धमान श्रेष्ठ हैं। वाणाण सेह्र अभय-प्पयाग, सच्चेसु था अणवावं अयंति । दानों में अभयदान, सत्मों में अनवद्य सत्य, सपों में उत्तम तयेसु वा उत्तम-बंभचेरं, सोगुत्तमे समणे पायपुत्ते । ब्रह्मचर्य के समान, लोकोत्तम ज्ञातपुत्र थमण भगवान महावीर श्रेष्ठ हैं। ठिईण सेट्ठा लबससमा बा, सभा मुहम्मा व समाण सेवा। स्थितियों में लवसत्तमा स्थिति, सभाओं में सुधर्मा सभा, निम्याण-सैट्ठा जह सत्य-अस्मा, न गायपुत्ता परमत्यि गाणी ॥ और धमों में निर्वाण धर्म से अधिक श्रेष्ठ कोई नहीं है। उसी प्रकार जातपुन्न भगवान महावीर से अधिक ज्ञानी कोई नहीं है। पुरोथमे धुणई विगयगेही, न सणिहि कुवई बासुपन्ने। साधकों के लिए भगवान महावीर पृथ्वी के समान सरिउ समुदं व महाभयोधं, अभयंकरे बीर अणंतचक्खू ॥ आधारभूत हैं, गृद्धि रहित वे भगवान महावीर संचय नहीं करते हैं, आशुप्रज्ञ भगवान महावीर समुद्र के समान संसार समुद्र को तिर चुके हैं और अभयंकर भगवान महावीर अनन्त शानी है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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