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सूत्र ७-१२
संघ स्तुति
मंगल सूब
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कोहं च माणं च तहेव मार्य, लोभ अजय अज्मात्य-चोसा। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार अध्यात्म दोषों का एआणि बंता अरहा महेसी, न कुबई पायं न कारवेइ॥ वमन--त्याग कर अहंद महर्षि महावीर न स्वयं पाप करते हैं
और न पाप करवाते हैं। किरियाकिरियं घणयाणुवावं, अण्णाणिवाणं पडियच्च ठाणं । भगवान महावीर, अक्रिया, बिनय और अज्ञानवादियों से सध्व-वायं इइ वेयइत्ता, उठ्ठिए संजम दोह-रायं ।। के पक्ष एवं वादों को जानकर दीर्घरात्र-यावज्जीवन-संयम
साधना के लिए उपस्थित हुए हैं। से वारिया इत्यि सराहभरतं, उबहाण बुक्ख खपट्ट्याए। इहलोक और परलोक को जानकर दुःख क्षय के लिए लोगं विवित्ता आरं पर च, सव्वं पभू वारिय सम्ब चारं ॥ उपधानवान् प्रभु ने रात्रिभोजन, स्त्री और सर्व वार-पापों का
परित्याग कर दिया है। सोच्चा य धम्म अरिहंतभासियं, समाहियं अट्ठपोषसुखें। श्री अरिहन्तदेव द्वारा भाषित, सम्यक् रूप में उक्त युक्तियों तं सद्धहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व वाहिवइ आगमिस्सति ॥ और हेतुओं से अथवा अर्थों और पदों से शुद्ध (निदोष) धर्म -सूव. सु१, अ. ६ गा. १-२६ को सुनकर उस पर श्रद्धा (श्रद्धापूर्वक सम्पन् आचरण) करने
वाले व्यक्ति आयुष्य (कर्म) से रहित--मुक्त हो जायेंगे, अथवा
इन्द्रों की तरह देवों का आधिपत्व प्राप्त करेंगे। बीर-सासण थुई
वीर शासन स्तुति. इ-पह-सात गर्दा गायत्त मध्यभापवेयं __ निवृत्ति मार्ग का शासक, सर्व भार-पदाथों का उपदेशक, कुसमय-मय-नासणयं, जिणिद वर-वीर-सासणयं ॥ जुसमय सिद्धान्त मद का नाशक जिनेन्द्रवर भगवान महावीर
-नं. ५. गा. २ का शासन सदा जयवन्त हो । गणहर यण सुतं
गणधर वन्दन सूत्र है. णमो गोयमाईण गणहराणं
गणधर गौतमादि को नमस्कार हो।
-- त्रि. अंतिमसुतं गणहरणामाणि
गणधर नाम: १०. पहमित्य इंबई, बीए पुण होई अग्गिभ्इ ति।
प्रथम इन्द्रभूति द्वितीय अग्निभूति, तृतीय वायुभूति, चतुर्थ तइए य बाउमूई, तो लियतें सुहम्मे य॥ व्यक, पंचम सुधर्मा, षष्ठ मंडितपुत्र, सप्तम मौर्यपुव, अष्टम मंडिय-मोरियपुत्ते, अकपिए चेव अयलमाया य । अक्रपित, नवम अचलञाता, दशम भतार्य, एकादशम प्रभास, मेयने य पहासे, मणहरा हुंति वीरस ॥ ये भगवान महावीर ने गणधर है।
-नं. थ. मा. २०-२१ संघस्स थुई
संघ स्तुति : ११. तव नियम विणयबेलो जयह सया नाविमलविउलजलो। तप, नियम और विनयरूप बेला भरतीवाले, निर्मल हेउसयविउलगो संघसमुद्दो गुणविसालो॥ ज्ञानरूप पानी वाले सैकड़ों हेतु स्प विपुल वेग वाले और गुण
- वि. स. ४१, उ, १९६, रा.२ से विशाल ऐसे संघसमुद्र की जय हो। संघ वंदण सुस्त
संघ वन्दन सूत्र : १२ (१) संघस्स गरोवमा--
(१॥ संघ को नगर की उपमागुण-भयण-गहण | सुय-रयण-भरिय! सणवसुख रत्यागा!। गुण रूप भवनों के गहन ! श्रुतरूप रनों से भरे हुए ! संघ-नगर ! भद्ध ते अखंउचरित्तपागारा !॥ विशुद्ध दर्शन-श्रद्धारूप ! रथ्या-गलियों वाले और अखण्ड
पारिवरूप प्राकार वाले हे संघ नगर ! "तू कल्याणकारी है।" (२) संघस्स चक्कोबमा
(२१ संघ को चक्र की उपनासंजम-सब-तबारयस्स नमी सम्मत्तपारियल्लस्स। संयम रूप तंब-नाभि, सप सप अर, सम्यक्त्वरूप परिकर अप्पडिचक्कस्स जो होर या संघचक्कस्स। और प्रतिचक-विरोधपक्ष-रहित "संप-पक्र" की सदा जय हो ।