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सूत्र २१३-२१६
तीन प्रकार के वर्शन
वर्शनाचार
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(१०) जो अस्थिकायधम्म, सुयधम खलु चरितधम्म च।
(१०) जो जिन-प्ररूपित अस्तिकाय धर्म, श्रुत-धर्म और सहारइ जिणामिहिर्य, सो धम्ममद ति नापश्वो ॥ चारित्र-धर्म में श्रद्धा रखता है, उसे धर्म-पचि जानना चाहिए ।
-उत्त, अ.२८, गा. १६-१७ तिविहे इसणे -
तीन प्रकार के दर्शन - २१४, सिविहे वंसणे पग्णते,' तं जहा
२१४. तीन प्रकार के दर्शन कहे गये हैं यथा१. सम्मदसणे, १. मिचछदसणे,
(१) सम्पग्दर्शन, (२) मिथ्या दर्शन, ३. सम्मामिछदंसगे। --ठाणं. अ. ३, ३, ३, मु. १६०/१ (३) सम्यमिथ्यादर्शन। सम्मसणे बिहे पण्णते, तं जहा
सम्यग्दर्शन दो प्रकार के कहे गये हैं यथाजिसगसम्मदसणे, अभिगमसणे,
(१) निसर्ग सम्पग्दर्शन, (२) अभिगम सम्यग्दर्शन । गिसम्गसम्मवेसणे दुबिहे पण्णते, तं जहा
निसर्ग सम्यग्दर्णन दो प्रकार के कहे गये हैं यथा-- परिवाइ चेव, अपरिवाइ घेव,
(१) प्रतिपाति, (२) अप्रतिपाति । अभिगमसम्मवंसणे दुषिहे पम्पसे, तं जहा
अभिगम सम्यग्दर्शन दो प्रकार के कहे गये हैं यथापडिवाइ चेव, नपरिबाइ चेव,
(१) प्रतिपाति, (२) अप्रतिपाति । -ठाणं. अ. २, ३.१, सु. ५६ बसणसंपण्णयाए फलं--
दर्शन का फल२१५. ५०—सणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयह?
२१५.५० भन्ते ! दर्शन-सम्पन्नता (सम्यक्-दर्शन की सम्प्राप्ति)
से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-सणसंपनयाए णं भवमिन्छत्तछयथं करेइ,
उ.- दर्शन-सम्पन्नता से वह संसार-पर्यटन के हेतु-भूत पर न विज्लायइ । मिथ्यात्व वा उच्छेद करता है-क्षायिक सम्यक्-दर्शन को प्राप्त अत्तरेण नाणदसणेणं अपार्ण संजोएमाणे होता है। उससे आगे उसकी प्रकाश-शिखा बुझती नहीं। वह
सम्म भावेमाणे विहरई ।। अनुत्तर ज्ञान और दर्शन को आत्मा से संयोजित करता हुआ,
-उत्त. अ, २६, पा. ६२ उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विहरण करता है। परिसणावरणिज्जस्स खऐण बोहिलाभो अक्खएण-अलाभो- दर्शनावरणीय के क्षय से बोधिलाभ और क्षय न होने से
अलाभ-- २१६. प०-(क) सोच्चा गं भंते ! केवलिस्स वा-जाब-तपक्खिय- २१६. प्र.-(क) भन्ते ! केवली से-यावत्-केवली पाक्षिक उवासियाए वा केवलं बोहि बुझज्जा? उपासिका से सुनकर कई जीव केवलबोधि को प्राप्त कर
सकता है? उ.-पोयमा ! सोरचा गं केलिस्स वा-जात्र-तपक्षिय- उ.--गौतम ! केबली से—यावत-केवली पाक्षिक उपा
उपासियाए वा अत्यंगलिए केवलं बोहि बुज्डोज्जा सिका से सुनकर कई जीत्र केवलबोधि को प्राप्त कर सकते हैं अत्यंगत्ति ए केवलं बोहि नो बुज्झज्जा।
और कई जीव केवलबोधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। (क) ठाणं. अ. २, उ.१, सु. ५६ । (ख) सत्तविहे दंसणे पणतं. सं जहा—१. सम्मदसणे, २. मिच्छदसणे, ३. राम्मामिच्छदसणे, ४. चखुदंसणे, ५. अचकनुदंसणे, ६. ओहिदसणे, ७. केवल दंगणे ।
-ठाणं. अ. ७, सु. ५६५ (ग) अट्ठविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा–१. सम्मदंसणे, २. मिच्छदसणे, ३. समामिछदसणे, ४. चवखुदंसणे. ५. अचखुदंसणे, ६. ओहिदसणे, ७. केबलटमणे, ८. सुविणदंसणे ।
- ठाणं. ८. गु. ६१९ स्थानांग को रचना के अनुसार ७ और ८ दर्शनों में प्रकार कहे गये हैं किन्तु सम्यग्दर्शनादि दर्शनत्रय से चक्षुदर्शनादि दर्शनों का विषय माम्ग नही है । बहुदर्शनादि चार दर्शन उपयोग रूप हैं और यह याग दर्शन दर्मनावरणीय कर्म के क्षयोपशम-क्षयजन्य हैं । (घ) तिविधे पओगे पण्णत्ते, तं जहा - -सम्मपओगे, मिच्छपओगे, सम्मामिच्छपओगे। -ठाण, अ.३, उ, ३, सु. १६०
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