________________
१२६]
परणानुयोग
सम्यक्त्य के आठ (प्रभाधना) अंग
समदंसणिस्स अट्ठ पभावणा
सम्यक्त्व के आठ (प्रभावना) अंग२१२. निस्सकिय नियकंखिय, निश्चितिगिच्छा अमूहविट्ठी य । २१२. (१) नि:शंका, (२) निस्काशा, (३) निविचिकित्सा, उबवूह - थिरीकरणे, वच्छल्ल • पभावणे अट्ठ ॥ (४) अमूह दुष्टि, (५) उपहण (सम्यकदर्शन की पुष्टि),
---उत्त. स. २८, गा. ३१ (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य, (८) प्रभावना -- ये आय
सम्यक्त्व के अंग हैं। सम्मदसणिस्स वसविहारुई --
सम्यक्त्व के दस प्रकार-(रुचि) २१३, निसगुवएसई । आगाई सुत्तबीयराइमेव । २१३. (१) निसर्ग-रुचि, (२) उपदेश रुचि, (३) आमा-कवि, अभिगमवित्थाररुई । किरियासंखेवधम्मरुई ॥' (४) सूत्र-रुचि, (५) वीज-धि, (६) अभिगम-रुधि, (७) विस्तार
मचि, (८) किया-गचि, {6) संक्षेप-रुनि, (१०) धर्म-कचि । (१) भूयत्येवाहिगया , जीवाजीवा य पुष्ण-पाय च । (१) जो परोपदेश के विना केवल अपनी आत्मा से उपजे सहसम्मुइयासनसंबरो, रोएइ उ निसग्गो ॥ हुए भूतार्थ (यवार्थ-ज्ञान) से, जीव, अजीव, पुण्य, पाप तथा आश्रय
को जानता है और संवर पर श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-रूचि है। जो जिदिटु भावे, चविहे सद्दहाइ सयमेव । जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से एमेव नऽनह ति य, स निसरगरुई ति नायबो॥ विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही ---"यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं
है"-ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्ग-रूचि वाला जानना
चाहिए। (२) एए चेव उ भावे, वहट्ट जो परेण सहहई । (२) जो दूसरों-छद्मस्थ या जिन–के द्वारा उपदेश प्राप्त छनमत्येण जिणेण च, उबएस रुई सि नायबो॥ कर, इन भावों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेश-चि वाला
जानना चाहिए। (३) रागो दोसो मोहो, अन्नाणं जस्स अवगय होइ । (३) जो व्यक्ति, राग, द्वष, मोह और अज्ञान से दूर हो
आगाए रोयंतो, सो वसु आणाई नाम ॥ जाने पर वीतराग की आज्ञा में रुचि रखता है, वह आजा-कधि है। (४) जो सुत्तमहिज्जन्तो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । (४) जो अंग-प्रविष्ट या अंग बाह्म सूत्रों को पढ़ता हुआ
अंगण वाहिरेण व. सो सुताइ नायग्वी॥ सम्यक्त्व पाता है, वह सूत्र-रुचि है। (५) एगेण अणेगाई, पयाई जो पसरई उ सम्मतं । (५) पानी में डाले हए तेल की बूंद की तरह सम्यक्त्व उदए स्व तेलबिवु, सो बीयरुइ ति नायध्वो।। (रुचि) एक पद (तत्व) मे अनेक पदों में फैलता है, उसे नौज कषि
जानना चाहिए। (६) सो होइ अभिगमरुई, सुयनाणं जेण अत्ययो बिट्ट। (६) जिस ग्यारह अंग, प्रकीर्ण और दृष्टिबाद आदि श्रुत
"एक्कारस अंगाई", पदण्यगं बिहिवाओ य॥ ज्ञान अर्थ सहित प्राप्त है, वह अभिगम-इचि है। (७) स्वाण सम्वभावा, सध्यपमाणेहि जस्स वलया। (७) जिसे द्रव्यों के सब भाव, सभी प्राणियों और सभी नय
सवाहि नविहीहि, य, वित्थाररुई ति नायम्बो ।। विधियों से उपलब्ध है, वह विस्तार-धि है। (८) वसगनाणचरिसे , तक्षिणए सच्चसमिइगुसीसु। (८) दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति,
जो किरियामाबहई, सो खलु किरियाई नाम ।। गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसको वास्तविक रुचि है, बह किया.
(8) अणभिमाहिपकुट्ठी , संख्नेवई ति होइ नापज्यो ।
अविसारओ ५षयणे, अभिमग हिओ य सेसेसु ॥
(8) जो जिन-प्रवचन में विशारद नहीं है और अन्यान्य प्रवचनों का अभिज्ञ भी नहीं है, किन्तु जिसे कुदृष्टि का आग्रह न होने के कारण स्वल्प ज्ञान मात्र रो जो सत्व-श्रद्धा प्राप्त होती है, उसे संक्षेप-रुचि जानना चाहिए।
१
ठा. अ.१०, सु. ७५१ ।