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________________ सूत्र ४६८.४६६ स्त्री को इन्मियों के अवलोकन का निषेध चारित्राचार [१२७ जतुकुम्मे जोतिमुबगळे, आमुऽभितत्ते णासमुपयाति । जैसे अग्लि को छूता हुआ लाख का घड़ा तप्त होकर नाथ एविस्थियाहिं अणगारा, संबासेण णासमुवति ॥ को प्राप्त (नष्ट) हो जाता है इसी तरह स्त्रियों के साथ संबास -सूय, सु १, अ. ४, उ. १, गा. २७ (संसर्ग) से अनगार पुरुष (भी) शीघ्र ही नष्ट (संयमभ्रष्ट) हो जाता है। हस्थपामपन्छिन, फण्णनास विगप्पियं । जिगके हाथ पर कटे हुए हों, जो कान, नाक मे विकल हो अवि वाससई नारि, बंभयारी विवज्जए ॥ वैसी सौ वर्षों की बड़ी नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे। - वस. अ.८, गा. ५५ समरेसु अगारेसु, सन्धीसु प महापहे। कामदेव के मन्दिरों में, घरों में, दो घरों के रीच की संधियों एगो एगस्थिए सद्धि, नैव चिटु न संलवे ॥ में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ न खड़ा -उत्त. अ. १. गा. २६ रहे और न संलाप करे ।। ४. इत्थी इंदियाणं आलोयणणिसेहो ४---स्त्री की इन्द्रियों के अवलोकन का निषेध४६६. नो इरथीगं इन्बियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता, ४६६. जो स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि निजमाइसा, हवइ, से निग्गये। गड़ाकर नहीं देखता, उनके विषय में चिन्तन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। प०-तं कहमिति चे? प्र०—यह क्यों ? उ.--आयरियार-निग्गयस्स खलु इत्थीणं इन्दियाई मणी- उ०—ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-स्त्रियों की मनोहर हराई, मणीरमाई मालोएमाणस्स, निजमायमाणस और मनोरम इन्द्रियों को दुष्टि गडाकर देखने वाले और उनके सम्भयारिस्त बम्मचेरे संका घा, खा या, वितिमिच्छा विषय में चिन्तन करने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) वा समुप्पज्जिम्जा, में शंका, कांक्षा या बिचिकित्सा उत्पन्न होती है । भेयं वा लभेजा, अथवा बह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है, वीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, केवलिपन्नत्तानो वा धम्माओ भंसेज्जा। अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, तम्हा खलु निग्गंधे नो इस्योगं इम्दियाई भगोहराई, इसलिए स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि मगोरमाई आलोएज्जा, निस्साएज्जा । गड़ाकर न देखे और उनके विषय में चिन्तन न करे । -- उत्त. अ. १६, सु. ५ अंगपतसंगसंहागं, पाहल्लवियपेहियं । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के चक्षु-ग्राह्य, अम्भधेररओ थीणं, चमषुगेजसं विवज्जए।' अंग-प्रत्यंग, आकार, बोलने की मनोहर मुद्रा और चितवन को -उत्त. अ. १६, मा. ६ म देखे और न देखने का प्रयत्न करे। न लव-लावण्ण-विलास-हासं, तपस्दी थमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, न जंपियं इंदियपेहियं वा । मधुर आलाप, इंगित और चितवन को चित्त में रमा कर उन्हें इत्थोग चित्तंसि निवेसइता, देखने का संकल्प न करे । बटुं वयस्से समणे तवस्सी ॥ अवसण व अपत्थणं , जो सदा ब्रह्मचर्य में रत हैं, उनके लिए स्त्रियों को न अचिन्तणं व अकित्तणं च । देखना, न चाहना, न चिन्तन करना और न वर्णन करना हितइत्योमणस्सारियझागजोग, कर है और धर्म-ध्यान के लिए उपयुक्त है। हियं सया बामवए रया ।। -उत्त. अ. ३२, गा. १४-१५ { अंग-पच्चंगसठाणं, चारुल्लविय-पेयिं । इत्थीणं तं न निम्झाए, कामरागविवड्ढणं ॥ -दस.अ.८,गा.५७
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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