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________________ ३२८] धरणानुयाग स्त्रियों के बासनाजन्य सम्ब-अवग का निषेध सूत्र ४७०.४७१ ५. इत्पीणं कूदयाइ सहसवणणिसेहो ५-स्त्रिगों के बासनाचा लह-श्रवण का निषेध - ४७०. नो इत्योर्ण कुजतरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, मितअन्तरंसि ४७०. जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, वा, कुहयसई वा, सइयसहया, गीएसई वा, हसियसद वा, पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, पणियसई वा, कन्वियसई बा, बिलवियसह वा, सुगंत्ता गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को नहीं सुनता, वह हबह से निगथे। निग्रन्थ है। प०-तं कहमिति धे? 1. यह क्यों? उ.-आयरियाह-निग्गयस्स खनु इत्थीगं फुड्डन्तरंसि वा, उऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं -मिट्टी की दीवार वसन्तरसि वा, भित्तिअंतरसि वा कुछयसई वा, कइय- के अन्तर से, परदे के अन्तर से, पक्की दीवार के अन्तर से, सद्द बा, गीयसद यश, हसियसई वा, अषियसई वा, स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप कन्दियसई वा, विलवियस पश, सुणमाणस्स बम्भ- के शब्दों को सुनने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) में यारिस बम्भचेरे संका बा, कंखा वा, वितिगिच्छा शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है। वा. समुप्पज्जिज्जा, बम्मयारिस्स, सम्मघेरे संकावा, कसा वा, वितिगिच्छा वा, समुग्जिज्जा, मेयं वा सभेजा, अयवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाउणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है, दोहकालियं या रोगायक हवेम्जा, अगवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है। केवलियनत्ताओ वा धम्मालो असेज्मा। अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है. तम्हा खलु निग्गचे मो हस्थोपं कुड्डन्तरंसिया, इसलिए मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, सन्तरति वा, मिसंतरंसि वा, कुहास बा, रुदय- पक्की दीवार के अन्तर से, स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, सई वा, गीयसई वा. हसियसहवा, यणियसहवा, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को न सुने । कवियसद वा, विसविषमष्बा सुणेमाणे विहरेग्जा। कुइयं सइयं गीयं, हसियं अपियं कवियं । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के श्रोष-ग्राह्य बम्भचेररओ योणं, सोयगिजन विधज्जए। कूजन, रोदन, मोत, हास्य, गर्जन और कन्दन को न सुने और --उत्त. अ. १६, गा.७ न सुनने का प्रयत्न करे। ६. भुत्तभोग-सुपरणणिसेहो- - ६-भुक्त भोगों के स्मरण का निषेध४७१. नो मिगंधे पुश्वरयं, पुस्तकीलियं अनुसरिता हबह से निग्गथे। ४७१. जो गृहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। १०-तं कहमिति चे? प्र०—यह क्यों ? ज.-आयरियाह .. निग्गंधस्स तु पुवरयं, पुश्वकीलियं उ.--ऐमा पूछने पर आचार्य कहते हैं-गृहवास में की अणुसरमाणस्स, बम्भयारिस्स बम्म चेरे संका वा, हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण करने वाले ब्रह्मचारी के पंखा वा, वितिगिन्छा वा सपुत्परिखना, ब्रह्मचर्य (के विषय) में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है। मेयं वा लमेण्मा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है। उम्मायं वा पाउपिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है। चोहकालिय वा रोगायकं हवेग्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है। केवलिपन्नताओ या धम्माओ मंसेज्जा। अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। तम्हा खलु नो निगांचे पुम्बरय, पुग्यकोसियं अणु- इसलिए मुहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण सरेजा। -उत्त. अ. १६, सु. न करे।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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