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________________ सूत्र ४७१.४७३ विकार-वर्धक आहार करने का निषेध चारित्राचार ३२९ हासं किडं रहं बप्पं, सलमाऽवतासियाणि य। ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु पूर्व-जीवन में स्त्रियों के बम्मचररओ पीण, नाचिन्ते कयाइ वि॥ साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास -उत्त. अ. १६, गा, = का कभी भी अनुचिन्तन न करे। ७. पणीयाहारणिसेहो . (७) विकार-वर्धक आहार करने का निषेध४७२. नो पणीयं आहार आहारिता सबइ से निगये । ४७२. जो प्रणीत आहार नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। प०-- कहमिति चे? प्र-वह क्यों? उ० आयरियाह-निर्गयस्स खलु पणीयं पाणभोयण ०-ऐमा पूछने पर आचार्य कहते हैं-प्रणीत पान-भोजन माहारेमाणस्त बम्भपारिस्स भयेरे संका बा, कसा करने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या वा. वितिगिठा वा समुप्पज्जिाजा, विचिकित्सा उत्पन्न होती है। अयं श लमेज्जा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है। जम्मायं वा पाणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है। बीहकानिय वा रोगायक हबेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है। केलिपप्रताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। अथवा यह केबलि कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। तम्हा खलु नो निग्गथे पोय आहार आहारज्जा। इसलिए प्रणीत आहार न करे। -उत्त. म. १६, सु. ८ पणीयं मत्तपाणं तु खिप्पं मपदियणं । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु शीघ्र ही काम-वासना बम्मचेररओ भिक्खू निचसो परिवज्जए॥ को बढ़ाने वाले प्रणीत भक्त पान का सदा वर्जन करे । उत्त, अ. १६, गा.६ रसा पगाभं न निसेवियबा, रसों का प्रकाम (अधिक मात्रा में) सेवन नहीं करना पायं रसा रितिकरा नराणं । चाहिए। वे प्राय: मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। वित्तं च शामा समभिवन्ति, जिसकी धातुएँ उद्दीप्त होती हैं उसे काम भोग सताते हैं, जैसे बुमं जहा साउफसं य पक्षी ॥ स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। जहा दवगी पडरिन्धणे वणे, जैसे पवन के झोकों के साथ प्रचुर इन्धन बाले बन में लगा समारो , नोवसमं उवेद। हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकाम-भोजी एविन्दियाली वि पगामभोइयो, (सठूस कर खाने वाले) की इन्द्रियाग्नि (कामाग्नि) शान्त न इन्भयारिस्स हियाय कस्सई॥ नहीं होती। इसलिए प्रकाम-भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए -उत्त. अ. ३२, गा.१०-११ हितकर नहीं होता। 5. अमितपाणभोयणणिसेहो ५- अधिक आहार का निषेध४७३ नो अदमायाए पायमोयण शाहारेत्ता हवइ से निगये। ४७३. जो मात्रा से अधिक नहीं खाता-पीता, यह निर्ग्रन्थ है। ५० - कहमिति चे? प्र०-यह क्यों? To-आयरियाह-निग्गयस्स खलु महमापाए पाणमायणं उ० ... ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-मात्रा से अधिक आहारेमा पस्स बम्भयारिस्स बम्भधेरे संका वा, फंसा पीने और साने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) में शंका, का, विसिगिच्छा वा समुप्पनिमज्जा, कांक्षा व विचिकित्सा उत्पन्न होती है। मेयं या सभेजा अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाणिज्जा, अथवा उन्माद पैदा होता है, बीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, केलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। अथवा केबली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, तम्हा खलु नो निग्गन्धे आइमायाए पाणमोयणं इसलिए मात्रा से अधिक न पीए और न खाए । अँमिला -उत्त. अ. १६, सु.६
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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