________________
३३०]
वरणानुयोग
विभूवा करने का निषेध
सूत्र ४७३-४७५
धम्मलडं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाण ।
ब्रह्मचर्य-रत और स्वस्य चित्तवाला भिक्षु जीवन निर्वाह के नाइमस तु भुजेज्जा, बम्भचेररओ सया ॥ लिए उचित समय में निर्दोष, भिक्षा द्वारा प्राप्त, परिमित भोजन
-उत्त. अ. १६, गा, १० कर, किन्तु अधिक मात्रा मे साये। १. विभूसाणिसेहो
8-विभूषा करने का निषेध४०४. नो विभूसानुवाई हबइ, से निमथे।
४७४. जो विभूषा नहीं करता-शरीर को नहीं सजाता, वह
निम्रन्थ है। प०-त कहपिति ?
प्र-यह क्यों। उ.-आयरियाह-विसावत्तिए, विमुसियसरीरे इस्थि- उ०—ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं --जिसका स्वभाव
जणस्स अमिलसणिज्जे हबद। तओणं तस्स इथि- विभूषा करने का होता है, जो शरीर को विभूषित किये रहता गणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भपारिस सम्मन्नेरे संका है, उसे स्त्रियाँ चाहने लगती है । पश्चात् स्त्रियों के द्वारा नाहे वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुपस्मिना, जाने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के विषय) में शंका, कक्षा या
विचिकित्सा उत्पन्न होती है। भेयं वा लमेमा,
अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, जम्मायं वा पाउणिज्जा,
अथवा उन्माद होता है। योहकालियं या रोगायक हषेज्जा,
अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है केवलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।
अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, सम्हा खलु नो निगगम्ये विभूसागुवाई सिया।
इसलिए विभूषा न करे। -उत्त. अ, १६, सु. १० विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमगणं ।
ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्ष विभूषा का वर्जन करे बम्मररओ भिक्खू, सिगारस्थ न धारए ।। और शरीर की शोभा बढ़ाने वाले (केश, दादी आदि को)
. उत्त. अ. १६, गा. ११ शृगार के लिये धारण न करे। १०. सद्दाइसु मृच्छाणिसेहो ..
१०-शब्दादि विषयों में आसक्ति का निषेध४७५. नो सह-स्व-रस-गन्धफासागुवाई हवन, से मिगम्थे । ४७५. जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और म्पर्श में आसक्त नहीं होता,
मह निर्ग्रन्थ है। ५०-तं कहामिति चे?
प्र०—यह क्यों ? ज-शायरियाह-निग्गन्धस्स खलु सद्द - कव रस-गन्धः उ.-ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं- शब्द, रूप, रस,
फासागुवाइल्स यम्मयारिस्स बम्भनेरे संका वा, कंषा गन्ध और स्पर्श में आसक्त होने वाले ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य (के वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा,
विषय) में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है। भेयं या सभेज्जा,
अगवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, उम्मायं वा पाउणिज्जा,
अथवा उन्माद पैदा होता है। दोहकालियं पा रोगायक हवेज्जा,
अथवा दीर्घकालिक रोग और आतक होता है, केलिपन्नताओ वा धम्माओ मसेन्जा ।
अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, सम्हा खलु गो निमान्थे सब-स्व-रस-गन्ध-फरसाणु- इसलिए शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पशं में भासत न वाइ हविज्जा।
बने। वसमे धम्मचेरसमाहिद्वाणे हवह ।
ब्रह्मचर्य की समाधि का यह दसवां स्थान है। -उत्त० अ०१६, सु. ११