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________________ सूत्र ४८०-४१ गृहस्यकृत काय क्रिया की अनुमोबना का निषेध चारित्राचार (३३७ माते फले समुष्पग्ने, गेण्हसु वा णं अहवा बहाहि । पुत्र रूपी फल के उत्पन्न होने पर (वह कहती है) इसे (पुत्र मह पुत्तपोसिगी एगै, भारबहा हति उट्टा पा॥ को) ले अथवा छोड़ दे। (स्थी के अधीन होने वाले) कुछ पुरुष पुत्र के पोषण में लग जाते हैं और वे ऊँट की भांति भारवाही हो जाते हैं। रामो वि उडिया संता, वारगं संठवेति धाती वा। वे रात में भी उठकर (रोते हुए ) बच्चे को धाई की भांति सुहिरीमणा वि से संता, अत्यधुवा हवंति हसा ना ॥ लोरी गाकर सुला देते हैं। वे लाजयुक्त मन वाले होते हुए भी धोबी की माँति (स्त्री और बच्चे के) वस्त्रों को धोते हैं। एवं सहूहि कयपुरवं, भोगत्याए जेभियावन्ना । बहुतों ने पहले ऐसा किया है। जो काम-भोग के लिए बासे मिए ६ पेस्से का, पमुमते या से वा केई॥ भ्रष्ट हुए हैं वे दास की भांति समर्पित, मृग की भांति परमेश, प्रेष्य की भांति कार्य में व्याप्त और पशु को भांति भारवाही होते हैं । वे अपने आप में कुछ भी नहीं रहते। एवं तु तासु विष्णप्प संघवं संवासं च चएज्जा। इस प्रकार (स्त्रियों के विषय में जो कहा गया है। उन तन्जातिया इसे कामा वग्जकरा य एवमक्खाया। दोषों को जानकर- उनके साथ परिचय और संभास का परित्याग करे। ये काम-भोग सेवन करने से बढ़ते हैं। तीर्थकरों ने उन्हें कम-बन्धन कारक बतलाया है। एवं भयंग सैपाए से अपगं णिमित्ता। ये काममोग भय उत्पन्न करते हैं । ये कल्याणकारी नहीं है। जो इत्यि जो पहुं भिक्खू, गो सय वाणिणा जिलज्जेज्जा ।। यह जानकर भिक्षु मन का निरोध करे.-कामभोग से अपने को बचाए । वह स्त्रियों और पशुओं से बचे तथा अपने गुप्तांग को हाथ से न छुए। सुषिसुबलेसे मेहावी परकिरियं च यजए गाणी । शुद्ध अन्तःकरण वाला मंधायी ज्ञानी भिक्षु परक्रिया न मनसा वयसा फाएणं सब्यफाससहे अणगारे ।। करे-स्त्री के पैर आदि न दबाए। वह अनिकेल भिक्षु मन, बनन और काया से सब स्पर्षी (कष्टों) को सहन करें। इन्वेवमाह से वीरे ध्रुयरए धूयमोहे से भिवखू । भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है --जो रग और मोह को सम्हा अग्नत्यविसुद्ध सुविमुक्के मोक्खाए परिषएग्जासि ।। ध्रुन डालता है वह भिशु होता है । इसलिए वह शुद्ध अन्त करण -सूय. सु. १, अ. ४, ज. २, गा. १-२२ भिक्षु काम-बांछा से मुक्त होकर, बन्धन-मुक्ति के लिए परिजन करे। परिकर्म निषेध-४ मिहत्थकय कार्याकरियाए अणमोयणा णिसेहो गृहस्थकृत काय क्रिया की अनुमोदना का निषेध४८१. परकिरियं अस्थिय संसेपयं णो त सातिए णोतं णियमे। ४८१. पर अर्थात गस्थ के द्वारा आध्यात्मिकी अर्थात् मुनि के -आ सु. २, अ. १३, सु. ६६२ शरीर पर की जाने वाली काय गापाररूपी क्रिया संश्लेषिणी कर्म बन्धन की जननी है. (अतः) वह उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से भी प्रेरणा न करे 1
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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