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________________ वन २०३-२०० छहों दिशाओं में ज्ञान वृद्धि शामाधार परिशिष्ट १२३ छसु विसासु णाणबुड्ढी छहों दिशाओं में ज्ञान वृद्धि२०३. छहिसाभी पणत्ताओ, तं जहा—पाईणा, पड़ीणा, बाहिणा, २०३. छ: दिशाएँ कही हैं, यथा-(१) पूर्व, (२) पश्चिम, जवीणा, उढा, अधा। (३) दक्षिण, (४) उत्तर, (५) ऊन, (६) अधो। हि बिसाहि जीवाणं गती पयत्तति नाणाभिगमे, तं जहा- छ: दिशाओं में जीवों को ज्ञान की प्राप्ति होती है, यथा-- पाईगाते-जाव-अधाते। -ठाणं. अ. ६, मु. ४६६ पूर्व-यावत्-अधोदिशा में। नाणबुढिकरा दस नक्खत्ता ज्ञान वृद्धिकर दस नक्षत्र२०४. स जयखता गाणस्स किरा पणत्ता, तं जहा- २०४. ज्ञान वृद्धि करने वाले दस नक्षत्र कहे हैं, यथामिगसिरममा पस्सो, तिनि य पुवाई मूलमस्सेसा। (१) मृगशिर, (२) आर्द्रा, (३) पुष्य, (४) पूर्वाषाढा, हत्यो चिसो य तहा, दस बुटिकराई गाणस्सा ॥ (५) पूर्वाफाल्गुनी, (६) पूर्वाभाद्रपदा, (७) मूल, (६) अश्लेषा, ठाणं, अ, १०, सु. ७८१ (8) हस्त, (१०) चित्रा । तिबिहा निण्णया तीन प्रकार के निर्णय-- २०५. तिनिहे अंते पण्णते, तं जहा २०५. अन्त (रहस्य-निर्णय) तीन प्रकार का कहा गया हैलोगते, (१) लोकान्त-निर्णय-- लौकिक शास्त्रों के रहस्य का निर्णय । वेयते, (२) वेदान्त-निर्णय-वैदिक शास्त्रों के रहस्य का निर्णय । समयते। -ठाणं. ३, ज. ४, सु. २१९ (३) समयान्त-निर्णय-जैनसिद्धान्तों के रहस्य का निर्णय । सिधिहा निव्वई तीन प्रकार की निवृत्ति२०. सिविधा बावस्ती पक्ष्णता, तं जहा - २०६. व्यावृत्ति (पापरूग कार्यों से निवृत्ति) तीन प्रकार की कही जाणू, अजाणू, वितिगच्छा। गई है-ज्ञान-पूर्वक, अज्ञान-पूर्वक और विचिकित्सा (संशयादि) पूर्वक। सिविहो विसयाणरागो तीन प्रकार का विषयानुराग२०७.तिविधा अग्लोषबज्जणा पण्णत्ता, संजहा २०७. अध्युषपादन (इन्द्रिय-विषयानुसंग) तीन प्रकार का कहा ___ जागू, अजाणू, वितिगच्छा। गया है-ज्ञानपूर्वक, अज्ञान-पूर्वक और विचिकित्सा पूर्वक ! तिविह विसवाणुसेवणं तीन प्रकार का विषय सेवन२०.. तिविधा परियावजणा पण्णत्ता, तं जहा-- २०८. पर्यापादन (विषप-सेवन) तीन प्रकार का कहा गया है.-- जागू, अजाणू, वितिगछा। -ठाण. ३, उ. ४, मु. २१८ शानपूर्वक, अज्ञान-पूर्वक, और विचिकित्सा-पूर्वक । १ इन नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ योग होने पर यदि अध्ययन किया जाता है तो जान वृद्धि होती है, विघ्नरहित अध्ययन, थदण, व्याख्यान एवं धारणा होती है। ऐसे कार्यों में विशेषकाल कारण होता है, क्योंकि विशेषकाल क्षयोपशम का हेतु होता है, कहा भी है गाहा-उदयन यवओबसमा, जं च कम्मुणो भणिया। दवं, बेत्तं काल, भवं च भावं च संपप्प ।।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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