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घरणानुयोग
विमंगशाम की उत्पत्ति
सूत्र ८६-८
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कडे भवद से असोन्चा केवलिस वा जाव-सप्पक्लि- से—धावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना कई जीव पउवासियाए वा केत्रलं आमिणियोहियनाणं-जाध- आभिनित्रोधिकज्ञान-यावत् केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर केवलनाणं नो उप्पाग्जा।
मकते हैं। –वि. स. ६,उ. ३१, सु. ३२ विमंगणाणोपति
विभंगज्ञान की उत्पत्ति६७. तस्स णं छ'छ?णं अनिषिखतेणं तवोफम्मेणं उर्जा बाहाओ ८७. निरन्तर छर-छठ (विले-बेले) का तपःकर्म करते हुए सूर्य के
पगिनिमय पगिजिमय पूराभिमुहस्स आयायणभूमीए आयावे. सम्मुख बाहें ऊँची करके आतापनाभूमि में आनागना नेते हुए माणस पप्तिमदयाए पगहउवसंतयाए पतिपयणुकोह उस (बिना धर्म श्रवण किये केबलशान तक प्राप्त करने वाले) माण-माया-लोभयाए मिउमदवसंपन्नयाए अल्लीणताए भताए जीव की प्रकृति भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक विणीतताए अण्णया कयाइ सुमेणं अमावसाणेणं, सुमेणं रूप से ही क्रोध, मान, माया और लोभ की अत्यन्त मन्दता होने परिणामेणं, लेस्साहि विसुज्ममाहिं तयावरणिज्जरणं से अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता कम्मागं खओबस मेणं ईहापोहमागणा-गवेसणं करमागस्स और विनीतता से तथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिविम्मगे नाम उमाणे समुपज्जइ,
णाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) को के क्षयोपशम से ईहा, अगोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए
(विभंग) नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। से णं सेणं विग्मंगनाणेणं समुप्पानेणं जन्मेणं अंगुलस्म फिर बह उस उत्पन्न हा विभंगशान नाग जघन्य अंगुल के असंखेज्जदमार्ग, उपकोसेणं असंखेग्जाई जोयणसहस्साई जाण असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यान हजार योजन तक पासइ,
जानता और देखता है। से गं तेणं विस्मंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीये वि जागइ, उस उत्पन्न हुए विभंग ज्ञान से वह जीवों को भी जानता है अनौवे वि जागाइ,
और अजीवों को भी जानता है। पासंस्थे सारंभे सपरिगहे संकिलिस्समाणे वि जाणद, वह पाषण्डम्य, मारम्मी (आरम्भयुक्त), पारिग्रह (परिग्रही) विसुजनमाणे वि जाणा,
और संक्लेग पाते हुए जीत्रों को भी जानना है और विशुद्ध होते
हुए जीवों को भी जानता है। से पुस्खामेव सम्मसं पडिवज्जद, सम्म पडिजिता (तत्पश्चान्) बह (विभंगज्ञानी) सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त समणधम्म रोएति, समणधम्म रोएत्ता चरितं पडिवज्जइ, करता है, सम्यक्त्व प्राप्त करके थमणधर्म पर मचि करता है, चरितं परिवमित्ता लिंग परिवजह,
श्रमणधर्म पर रुचि करके नारित्र अंगीकार करता है। सारित्र
अंगीकार करके लिंग (साधु वेश) स्वीकार करता है। तस्स पं लेहि मिन्छत्तपज्जवेहि परिहायमाहि परिहायमाहि, तब उस (भूतपूर्व विभगज्ञानी) के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः सम्मइसणपजवेहि परिषढमाणेहि परिषड्डमाणेहि से क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ने-बढ़ते विभंगे अलाणे सम्मत्तपरिगहिए सिप्पामेव ओहो पराबत्तइ। वह "विभंग" नामक अज्ञान, सम्यक्त्व-युक्त होता है और शीघ्र
-वि. स. ६, उ. ३१, मु. १४ ही अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। गाणस्स पहाणत्तं--
ज्ञान की प्रधानता८८. नागेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । त्त,अ. २८, गा. ३० ८८. ज्ञान के बिना चारित्र गुण की प्राप्ति नहीं होती है । पठम नाणं तमो वया, एवं चिट्ठए सव्वसंजए।
पहले ज्ञान फिर दया--इस प्रकार सव मुनि स्थित होते अनाणो कि काही, किंवा नाहिद सेय-पावगं ।' है। अज्ञानी क्या करेगा? वह क्या जानेगा-क्या श्रेय है और
क्या पाप?
१ अशानी को हेप, सेय, उपादेय का विवेक नहीं होता है, यह विवेक ज्ञान से ही सम्भव है अतः ज्ञानाचार को सर्वप्रथम स्थान
देना संगत है।