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________________ -२ सोचा जागद फलाणं, सोन्ना जाणइ पावगं उभयं पि जाण सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ ज्ञान से संगम का परिज्ञान नाणेण संजन परिया ८. जो जीवे विन या गाड़, अजीवे वि न पाई । जीवाजीवे अतीक तो नाहि संज भाणेण न संसार भ्रमणं - १०० जो जीवे वि विषाणाइ, अजोवे वि विद्यापई । जीव जीवे तो नाहिद संगम ॥ स. अ. ४, गा. ३३-३४ उ०- नामसंवाद पाए पं भते जीवे कि जगवद्द ? - दस. अ. ४, गा. १२-१३ जीये सत्यमायाभिरामं जगह। नाणसंपन्ने णं जीवे नाजरन्ते संसारकन्तारे न विपस्सइ । जहा सूई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्स । वहा जीससे संसारे न विणत्त ॥ ― नाविणतचरितजोगे संपाउण्ड ससमय-परसमय संधार्याणि भवद । मुप-आराहणा फलं ११. ५० – सुरस आराहणपाए थे अंते 1 जोवे किं अणय ? उ०- सुपरस आराहणयाए अश्राणं वेद न य संकिलस्सइ ॥ -- उत्त. अ. २९, सु. २६ जाणेण निव्वाणपति ६२. जया जोबे अजीवे य, दो दि एए वियाणई तया गई बहुविहं सच्वजोवाण जाई ॥ ५६ जपा गई बहुविहं, सभ्य जीवाण जागई । तया पुष्णं च पावं च, बंधं मोक्षं च लागई ॥ जया पुष्णं च पादं च बंध मोश्वं च जागई । हानिदिए भने मासे ॥ जीव सुनकर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं । वह उनमें जो श्रेय है उसी का आवरण करे । शान से संयम का परिज्ञान ८६. जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता वह जीव और अजोव को न जानने वाला संयम को कैसे जानेगा ? ( ज्ञान सम्पन्न ) अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है तथा स्वसमय और परसमय -- उत्त. अ. २६, सु. ६१ की व्याख्या या तुलना के लिए प्रामाणिक पुरुष माना जाता है । श्रुत-आराधना का फल जी जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता है वहीं, जब और अजीव दोनों को जानने वाला ही, संयम को जान सकेगा । ज्ञान से संसार भ्रमण नहीं ६०. प्र० -- भन्ते । ज्ञानसम्पन्नता ( श्रुतज्ञानसम्पन्नता) से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ० - ज्ञान सम्पन्नता से वह सब पदार्थों को जान लेता है । ज्ञान-सम्पन्न जीव नार गतिरूप चार अन्तों वाली संसार-अटवी में दिन नहीं होता। जिस प्रकार ससूत्र ( धागे में पिरोई हुई ) सुई गिरने पर भी मुम नहीं होती, उसी प्रकार समूह (भुत सहित ) नीव संसार में रहने पर भी विनष्ट नहीं होता। ६१. प्र० भन्ते ! श्रुत की आराधना से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ०- श्रुत की आराधना से अज्ञान का क्षय करता है और राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले मानसिक संक्लेशों से बच जाता है । शान से निर्वाण प्राप्ति ६२. जब मनुष्य जीव जोर अजीब इन दोनों को जान लेता है उब यह सब दीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है। जब मनुष्य सब जीवों को बहुविध गतियों को जान लेता है तब वह पुण्य पाप बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। जब मनुष्य पुण्य पाप बन्ध और मोक्ष को जान लेता है। तब जो भी देवों और मनुष्यों के भोग हैं उनसे विरक्त हो जाता है।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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