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चरणानुयोग
सोलह प्रकार के वचनों का विवेक
सूत्र ७६८-८००
प०-अह भंते ! उद्दे-जाव-एलए जाणति "अयं मे भट्टि म ०- भगवन् ! ऊँट- यावत्-भेड़ क्या यह जानता है कि दारए अयं मे मट्टिवारए" ति?
__यह मेरे स्वामी का पुष है ? उ०-- गोयमा ! पो इगठे समठे, गऽणत्य सणिणो। उ- गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ नहीं है, सिवाय
-पन्न १० ११. सु. ५३६ से ८४८ संजी के । सोडस वयण विवेगो
सोलह प्रकार के वचनों का विवेक७६६. अणूशीयि पिट्ठाभासी समिताए संजते भासं भासेज्जा, ७६६. संयमी साधु या साध्वी भाषा समिति से युक्त होकर तं जहा
विचारपूर्वक एवं एकाग्रतापूर्वक भाषा का प्रयोग करे।
जैसे कि (ये १६ प्रकार के वचन है)(१) एमवयणं, (२) दुवयण, (३) बहुवयणं, (४) इत्यो- (१) एकवचन, (२) द्विवचन, (३) बहुवचन, (४) स्त्रीलिंग ५५, (२ बम, (६) पु समयण, (७) अजमस्थ- कथन, (५) पुल्लिग-कथन. (१) नपुंसकलिंग-कथन, (७) अध्यात्मवयणं, (८) उबणीयवयणं. (0) अवणीयघयणं, (१०) उव- कयन, (5) उपनीत-प्रशंसात्मक-कथन, () अपनीत-निन्दात्मकणीलवणोतवयणं, (११) अवणीतउवणीतवयणं, (१२) कथन, (१०) उपनीत-अपनीत-कथन, (११) अपनीतोपनीत-कथन, तीयवयणं, (१३) पडुप्पणवयणं, (१४) अणागयवयणं, (१२) अतीत-वचन, (१३) दर्तमान-वचन, (१४) अनागत (१५) पच्चपखवयणं, (१६) परोषखवयणं ।'
(भविष्यत्) बचन, (१५) प्रत्यक्षवचन और (१६) परोक्ष वचन । से एमवयर्ष वनिस्सामिति एपवयणं वरेजा-जाव-परोक्ख- यदि उसे "एकवचन" बोलना हो तो वह एकवचन ही बयणं वदिस्सा मिति परोक्सवयणं ववेज्जा । इत्थी बेस, पुमं बोले-यावत्-परोक्षवचन पर्यन्त जिस किसी वचन को बोलना बेस, अप्सर्ग वेस एवं वा चेयं, अण्णं वा चेयं अणुवीयि हो, तो उसी वचन का प्रयोग करे। जैसे—यह स्त्री है, यह णिट्ठाभासी समियाए संजते भासं भासेज्जा। पुरुष है, यह नपुंसक है, यह बही है या यह कोई अन्य है, इस -आ० सु० २, अ० ४, उ० १, सु० ५२१ प्रकार जब निश्चय हो जाए. तभी भाषा-समिति से युक्त होकर
विचारपूर्वक एवं एकाग्रतापूर्वक संयत भाषा में बोले । असावज्जा असच्चामोसा भासा भासियब्या
असावध असत्यामृषा भाषा बोलना चाहिए८००. से भिक्खू बा भिमखूणी वा जा य भासा सच्चा सुहमा, जा ८००. जो भाषा सूक्ष्म गत्य सिद्ध हो, तथा जो असत्याभूषा
य भासा असच्चामोसा तहप्पगार भासं असावज्ज अफिरियं भाषा है साथ ही ऐसी दोनों भाषाएँ असावध अक्रिय, अकर्कश अकस्कस अकऽयं अनिठुरं अफरुसं-अणण्यकरि अछेयकरि (मधुर), अकटुक (प्रिय), अनिष्ठुर, अफरस (मृदु), संबरकारिणी, अमेयणरि अपरितावणकरि अणुद्दवणकार अभूतोबधातिय प्रीतिकारिणी, अभेदकारिणी, अपरितापकारिणी, अनुपद्रवकारिणी, अभिकख मासेज्जा।
प्राणियों का घात नहीं करने वानी हो तो साधु साध्वी पहले -आ. मु.२, अ. ४, उ. २, सु.५५१ मन से पयलिोचन करके उक्त दोनों भाषाओं का प्रयोग करें।
(मालय
१ प०—कतिविहे ग भते ! वमणे पण्णते? उ०—गोयमा ! सोलहविहे वयणे पणते । तं जहा–१. एगवयणे, २. दुयवयण, ३. बहुवयणे, ४. इत्थिवयणे, ५. पुरवयणे,
६ ण सगवयणे, ७. अज्झत्यवयणे, ६. उवगीयवयणे, ६. अवणीयवयणे, १०. उवणीयावणीवश्यणे, ११. अवणीवउवणीय
वयणे, १२. तीतवयणे, १३. पप्पत्रवयणे, १४. अणायवयणे, १५. पच्चक्सबयणे, १६. परोक्खवयणे। प०-इच्चेयं भंते ! एगवणं वा-जाद- परोक्खवयणं वा वयमाणे पग्णवणी गं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा? उ.-हंता गोयमा ! इच्चेयं एगववर्ष वा-जाव-परोक्सवयणं वा ववमाणे पाणवी गं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा ।
-qषण प०११, ८६६-६६७ २ पंचिदियाणि पाणाणं एस इत्थी अब पुर्म । जाब णं न बिजाणेज्जा ताव जाइ ति आलवे ॥ -दस० अ०७, गा० २१ ३ (क) असञ्चमोस सच्चं च, अगवज्जमकवकसं । समुप्पेहमसंदिद्धं, गिर भासेज्ज पन्नवं ॥
- दम० अ०७, गा०३ (ख) अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज्ज वा परो । सवसो त न भासेज्जा, भासं अहियगामिणी ।
दिट्ट मियं असंदिद्धं, पडिपुन्नं वियं जियं । अयंपिरमणन्विर्ग, भासं निसिर अत्तवं ॥ -दस० ८, गा० ४७.४८