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________________ ६५८ ] चरणानुयोग www www शय्या संस्तारक पर बैठने व शयन की विधि 7 वच्छेदएण था, बालेग वा. बुड्वेण वा, सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा, मज्मेण वा, समेण वा विसमेण या पवाएण वा. शिवासेण वा पडिलेहिय पडिले हिय पमज्जिय पतिता संघा -- आ. सु. २. अ. २, उ. ३, सु. ४६० ( १ ) सेन्जाबारे आरोहण सयण विहि१३०, सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफानुयं सेज्जासंथारा संचरिता अभिकलेज्मा, बफासुए सेन्नासंधारण दुकहिनए । सेभिक्खू या भिक्खुगी वा बहुफालुए लेज्जासंथारए दुरूहमाणे पाय पमज्जिय पमज्जिय ततो संजयामेव बहुफासुए सेसेज्जासंधारए दुरुहेज्जा हुम्हहिता ततो संजया मेव बहुफाए मेज्जासंथारए सज्जा । सेवामा समा जो अण्णमण्णस्स हत्थेण हत्थं पायेण गावं कारण कार्य आसाएज्जा से अवासाय अवासायमाणे ततो संजयामेव बहुफाए सेवाभासा सेभिक्खू वा भिक्खूणी वा ऊससमाणे वा नीससमा वा कासमाणे वा, छोयमाणे वा जंमायमाणे वा उड्डोए वा, वातजिसमे वा करेमाणे, पुण्यामेव आसयं बा पोसयं वा पाणिणा परिपिता तसो संजयामेच ऊससेज्ज वा जाव वायसिगं वा करेज्जा । -आ. सु. २, अ. २. उ. ३, सु. ४५०-४६१ अण्णसंभोइयाणं पीढाई नियंतण विही १३१. से आगंतारेसु वाजय परियावसहेनु वा अणुवीद अहं जाएजा जाव से विपुण तत्योसि एवोस? जे तत्य साहम्मिया अष्णसंभोइया समगुण्णा उगच्छेज्जा जे तेण सयमेतिए, पीछे वा फलए वा सेज्जासंधारए वा रोगले एसएस उपमित वयं परिपरिवार बीयि सूत्र १२०-१३२ अतिथि साधु के लिये किनारे का स्थान मध्यस्थान या सम और विषम स्थान वातयुक्त या निर्वातिस्थान को छोड़कर अन्य भूमि का बार-बार प्रतिलेखन एवं प्रभाव वारके अपने लिए अत्यन्त प्रागुकास्तरको नाक संस्कारक पर बैठने व शयन की विधि १३०. भिक्षु या भिक्षुणी अत्यन्त प्राक शय्या संस्तारकः बिछाकर उस अति प्राशुक शय्या संस्तारक पर चढ़ना चाहे तो भिक्षु यः भिक्षुणी उस अति प्रासु शय्या-संस्तारक पर चढ़ने से पूर्व मस्तक सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैरों तक भली-भांति प्रमाजैन करके फिर यतनापूर्वक उस अतिमायुक या संस्तारक पर आरू होने और रूट होकर यतनापूर्वक उस पर शयन करे। भिक्षु या भिक्षुणी उस कतिपासुन शन्या संन्तारक पर शयन करते हुए परस्पर एक दूसरे के हाथ से हाथ पैर से पैर और शरीर से शरीर की आशालना नहीं करे. इस प्रकार माशालना न करते हुए पतनापूर्वक अशा संन्तारक पर सोदे । fra या भिक्षुणी ( पाय्या संस्तारक पर संति-बैठते हुए) श्वास लेते हुए श्वारा छोड़ते हुए खांनते हुए. श्रींकते हुए. उबासी लेते हुए, डकार लेते हुए या वायु निसर्ग करते हुए पहले ही मुंह या अपनवार को हाथ से ढक कर पतनापूर्वक श्वास लेवे - यावस् - वायुनिसर्ग करे । अन्य सांयोगिक को पीठ आदि के निमन्त्रण विधि १३१. साधु पथिकशालाओं यावत् परियाजकों के आवासों मैं विनार कर अग्रह ग्रहण करे यावत्वग्र ग्रहण करने के वाद और क्या करे ? यदि वहाँ माधभिक, अन्य सांयोगिक, समनोज साधु आ जाये तो स्वयं के लिए ग्रहण किये हुए पीड, फल व शय्या गोमंस्तानि जन्य साथीक साधुओं को निमन्त्रण कर दे दें। किन्तु उनके लिए अन्य ही लाकर देवे ऐसा न करे । , सामारिक केशरा संस्कारक की प्रत्यर्पण विधि आ सु. २. अ. ७ . १, सु. ६१० सागारिय सेज्जा संधारगा पचविणण विही१३२. कप्पइ निग्गंथाण वा निमांदीण वा सागारिय संतियं नेज्जा- १३२. निर्ग्रन्थ और निन्थियों को यागारिक का ग्रहण किया संचारयं आयाए विगरणं कट्ट संपल्वइसए । हुआ शय्या संस्तारक व्यवस्थित करके विहार करना कल्पता है। -कम उ. ३. सु. २६ विप्पण सेवासंवारवाणं गवेसण बिही-१३३. इह खलु निमाण वा निगोयोण वा पारिहारिए वा सागारियां लिए था सेवा संचार विष्वणसेज्जा से य अणु गवेसियले सिया । खोए हुए शय्या संस्तारक के अन्वेषण को विधि१३३.नि और निधियों को पातिहारिया याचारित वा शय्या संस्तारक यदि गुम हो जाये तो उसका अन्वेषण करना चाहिए ।
SR No.090119
Book TitleCharananuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size23 MB
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